प्रोफेसर साहब
प्रोफेसर साहब को अपने जूनियर शिक्षकों के साथ बाते करना बहुत अच्छा लगता था। वो अपने कनिष्ठ शिक्षकों का इतना ख्याल रखते थे की शाम को जब भी बिभागीय कैंटीन से मैग्गी लाने को कहते तो साथ में यह भी आदेश देते की जितने लोग विभाग में है सबको एक एक प्लेट मैग्गी मिलनी चाहिए। ऐसा सुनते ही सभी कर्मचारियों की हवा टाइट हो जाती थी क्यों की यह इस बात का संकेत होता था की उस दिन घर पहुंचने में रात के ९ बज जायेगे और उनको प्रोफेसर साहब का भाषण ३ घंटा ज्यादा सुनना पड़ेगा।
प्रोफेसर साहब को भाषण देने का बहुत शौक था। अगर उन्हें कही बाहर से बोलने का न्योता नहीं मिलता था तो इस बात का वे विशेष ख्याल रखते थे की कही उनके भाषण देने की कला में जंग ना लग जाये और इसीलिए इसका अभ्यास वे विभाग में कनिष्ठ शिक्षकों को बैठकर हमेशा किया करते थे। लेकिन इस प्रक्रिया में एक ही बात को बार बार दोहराते रहते, उन्हें तो इसका अंदाज़ा नहीं होता लेकिन बाकि शिक्षकों में एक ही बात साल दर साल सुनते सुनते त्राहि माम की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। अपने भाषण देने की प्रक्रिया में जब वे यह कहते की आज मै ज्यादा समय नहीं लूंगा और भाषण जल्दी समाप्त करूँगा तो यह इस बात का संकेत होता की अभी ये दिल भरा नहीं और अब वो एक घंटा और बोलेंगे।
कुछ बाते तो वो पिछले १५ सालों से निरंतर कहे जा रहे है जैसे की एक दिन हमारे विभाग में वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की सुविधा होगी और उस दिन वो अपने विभाग में ही बैठकर दुनिया के श्रेष्ठतम संस्थानों में भाषण देंगे। उनकी बातें अब राकेश रोशन की फिल्म 'करण - अर्जुन' की तरह लगने लगी है जिसमे राखी यही कहते रहती थी की 'मेरे करण - अर्जुन आएंगे' . उस फिल्म में तो राखी के करण अर्जुन आ गए थे लेकिन प्रोफेसर साहब की वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग अभी भी आनी बाकि है।
इधर जब से उन्होंने प्रबंधन विभाग की जिम्मेदारी ली तब से प्रबंध शास्त्र पर उनकी विशेष रूचि बन गयी और उनको हमेशा इस बात की चिंता खाये रहती थी की प्रबंध शास्त्र को कैसे एक सार्वभौम विभाग के रूप में स्थापित किया जाये तथा इस महान विषय को बचाया जाये। इसीलिए रोज कुछ शिक्षकों को अपने कक्ष में बुलाकर, कभी एक घंटा बचाते तो कभी दो घंटा और कई बार इससे भी ज्यादा समय देते थे इस विषय को बचाने के लिए।
प्रोफेसर साहब को एक और चिंता रहती थी कि हमारा विभाग किसी भी 'भारतीय प्रबंध संस्थान' से बेहतर है लेकिन सरकार की गलत नीतियों के कारण हमें इस बात की मान्यता नहीं मिली है। वो कहते रहते है की भारतीय प्रबंध संस्थान में गुडवत्ता वाली शोध होती नहीं है जैसा की हमारे विश्वविद्यालय में होता है और हम एक दिन भारतीय प्रबंध संस्थान के शिक्षकों को शोध के क्षेत्र में मार्ग दिखाएंगे। हालाँकि ये बात अलग है की पूरे विभाग में उस वक़्त तक किसी भी शिक्षक की शोध पत्री किसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के जर्नल में नहीं छपी थी। और हमारे भी चापलूसी की हद देखिये, ये जानते हुए भी की ये गलत और हास्यास्पद है, हम उनके समर्थन में सिर हिला देते थे।
अब जब चापलूसी की बात निकली ही है, तो इतना बताता चलु की चापलूसी का भी अपना संविधान होता है। हर किसी की चापलूसी आसानी से स्वीकार्य नहीं होती। उसके लिए साधना करनी पड़ती है। अपने आप का 'मैं ' ध्वस्त करना होता है। देवता को विस्वास दिलाना होता है की आप एक बार मुझे अपनी चापलूसी का मौका दीजिये और फिर देखिये मै, मै नहीं रहूँगा बल्कि आप हो जाऊंगा, मै खुद की पत्नी का चेहरा भी आपसे पूछकर देखूंगा। इतनी सारी बाधाओं को पार करने के बाद तब कही जाकर सच्चा चापलूस बनने का मौका मिलता है।
हम भी मैदान में उतरे अपनी वफादारी साबित करने की कोशिश की लेकिन मुझ जैसे निक्कम्मे से ये भी ना हो पाया और चुनु, मुनु और टुनु नामक तीन लोग इसमें कामयाब हो गए और अंत में मुझे इस क्षेत्र में हार का मुँह देखना पड़ा। अब चुनु, मुनु और टुनु उनकी आँख,कान और नाक हो गए है। हालांकि बीच बीच में प्रोफेसर साहब कहते रहते है कि वे कभी भी दोहरा मापदंड नहीं अपनाते लेकिन शायद ऐसा कहकर अपने आप को सही ठहराने की कोशिश करते है। आजकल प्रोफेसर साहब जब कभी शोधपत्री प्रकाशित होने की बात होती है तो चुनु, मुनु और टुनु की प्रशंशा करते नहीं अघाते। बार बार मानों वे यह कह रहे हो इन तीनो के लिए जैसे "कलम आज उसकी जय बोल। जला अश्थियाँ बारी बारी, छिटकाई जिसने चिंगारी, चढ़ गए पुण्य बेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल, कलम आज उसकी जय बोल". और एक दिन पता चला की चुनु ने अपनी अस्थियां सचमुच जला ली, जब एक प्रकाशक का संदेसा आया की चुनु की अधिकांश रचनाये चुराई हुई है। तब से उनके गुणगान मे कुछ कमी आयी है।
जब भी कोई सुन्दर शोध छात्रा पीएचडी के लिए विभाग में दाखिला लेती है तो मजाल है कोई और उस खूबसूरत बाला का गाइड बन जाये। ये जिम्मेदारी प्रोफेसर साहब अपने मजबूत कंधो पर उठाते है और उस बाला को पहले अपने कमरे में घंटों बिठाकर ज्ञानसागर में गोते लगवाते है और जब वो बाला उनके ज्ञान की चाशनी में नहा चुकी होती है तो उससे वादा लेते है की वादा करो की जब तक तुम्हारी पीएचडी पूरी नहीं होगी तुम विवाह नहीं करोगी, और वो छात्रा भी उनके तेज़ से इतना प्रभावित रहती है की उनकी हाँ में हाँ मिला ही देती है।
प्रोफेसर साहब की सबसे अच्छी बात उनकी आत्ममुग्धता लगती है। वे इतने आत्मकेंद्रित है की उनको अपने सिवा और कोई दूसरा दिखाई नहीं देता और विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक रहना कोई उनसे सीखे। जब वे विभागाध्यक्ष हुआ करते थे तब वे हमेशा कहा करते थे की विश्वविद्यालय की असली सत्ता विभागाध्यक्ष के पास होती है और जब वे डीन बने तो कहने लगे कि वास्तविक जिम्मेदारी विश्वविद्यालय चलने की डीन के पास होती है। कालांतर में जब वे दोनों ही नहीं रहे तो कुछ कुछ धर्मगुरुओ जैसा प्रवचन देने लग गए है और कहते है कि व्यक्ति को किसी पद से सत्ता या सामर्थ्य नहीं मिलती है असली शक्ति तो व्यक्ति के अंदर होती है।
Disclaimer: The story is fictitious and any resemblance to any person living or dead is purely coincidental.