डमलू चाचा
एक है हमारे डमलू चाचा। अगर डमलू शब्द सुनकर आपको भी लग रहा है कि 'ल' के जगह 'र' होना चाहिए तो आप बिलकुल सही है। 'डमलू' नाम उनको 'डमरू' से ही मिला है क्योकि ये भी डमरू की तरह दोनों तरफ से बजते रहते है। जैसे की हमारे देश के कुछ लोगों को लगता है कि सृष्टि की रचना उन्होंने ही की है डमलू चाचा भी कहते रहते हैं कि "सृष्टि की रचना तो मैंने हि की है लोग तो झूठ मुठ ही ब्रह्मा जी श्रेय देने लगे हैं"। यही बात वे दिन भर डमरू की तरह बजते हुए सबको बताते रहते है। एक कहावत कही जाती है कि कोई काम करो या ना करो उसकी फिक्र जरूर करो और फिक्र सिर्फ मत किया करो बल्कि उसका जिक्र जरूर करो। डमलू चाचा जब भी कमा कर गांव आते तो अपने करतबों का जिक्र करना नहीं भूलते। उनके इस काम में उनकी सालियाँ और कुछ रिश्तेदार भी खूब सहयोग देते क्यों कि उन लोगों को भी लगता था कि डमलू चाचा के कहने पर लोग पूजा न सही, इज़्ज़त तो देने ही लगेंगे कि वो कितने बड़े आदमी के रिश्तेदार हैं। डमलू चाचा साल में ५,०००/- रुपये ही देते थे और और उसका जिक्र ऐसे करते थे मानों कि इस ५,०००/- रुपयों से ही पूरा घर बन रहा है, गांव में जितने लोग रहते है उनका खर्च भी उसी से चल रहा है, खेती के लिए जितने उपकरण चाहिए वह भी उसी ५,०००/- में ख़रीदा जा रहा है। और इसी वजह से गांव का सबसे समृद्ध व्यक्ति होने का तमगा भी स्वयं अपने आप को प्रदान कर लेते थे।
हास्यास्पद स्थिति तो तब हो जाती अगर कोई पूछ ले कि चाचा अगर आप इतने कमाने वाले थे तो बाग़ और खलिहान वाली जंमीने क्यों बेचनी पड़ी और गांव का पुस्तैनी मकान बनाने में वही पैसे ज्यादातर लगे है तो मजाल है वह व्यक्ति बिना जलील हुए चला जाये। उस व्यक्ति से डमलू चाचा तब तक झगड़ा करते है जब तक थक कर सो नहीं जाते। डमलू चाचा से कोई झगड़े में जीत जाये ऐसा कोई अभी तक तो नहीं मिला। इसकी मूल वजह ये है की कोई भी जब झगड़ा करता है तो मूलतः तर्क और तथ्यों के साथ अपनी बात रखता है और यही वो मारा जाता है। डमलू चाचा ने तर्क और तथ्य दोनों से किनारा कर लिया है और इसी कारण उनसे कोई लड़ नहीं सकता। वे झगड़ा करते हुवे झगड़े की प्रक्रिया को उसके न्यूनतम स्तर तक खींच कर लातें हैं और सामने वाला नैतिक रूक से गिरते हुवे बिलकुल निचे आ जाता है तो उस स्तर पर अपने अनुभवों से सामने वाले को मात दे देते है।
डमलू चाचा कमाने तो १९८० में गए लेकिन उनकी कमाई जमी १९८७ से। १९८७ से १९९९, मूलतः १२ साल ही वे ढंग से कमाए थे और जो भी पैसा देना होता था, इन १२ सालों में ही दिया। लेकिन जब झगड़ा होता है तो सिंघम की तरह कूद-कूद कर ये बताते है की मैंने ३० साल कमा कर इन लोगों को पैसा दिया और ये लोग आज पुस्तैनी संपत्ति में अपना हिस्सा मांग रहे है जो की सिर्फ मेरी है। ये बात अलग है की बाग़ और खलिहान की आधी जमीनें इसी कालखंड में बिक गयी।
वे जब अलग हुए तो शायद ये दुनिया का पहला ऐसा पारिवारिक बंटवारा होगा जहाँ डमलू चाचा ने संपत्ति तो ले ली लेकिन खर्च सामूहिक ही रहने दिया। इसको विस्तार से समझते है। उन्होंने अपने हिस्से का खेत सन २००५ में ही अलग कर लिया लेकिन उनका और उनके परिवार का खान - पान और बाकि खर्च परिवार में सामूहिक ही होता रहा। जब फसल कट गयी तो अपने हिस्से की पूरी फसल बेच दी और अपने खान पान के खर्चे, दवाई, उत्सव इत्यादि के सभी खर्चों के लिए परिवार के सामूहिक खाते से पैसा मांगते रहे। यानि मुनाफा अकेलिया और खर्चा सरकारी। क्या बात है डमलू चाचा?
हमारे प्यारे डमलू चाचा बहुत ही आत्ममुखी है। उनको अपने अलावा और कुछ दिखता ही नहीं। अगर कोई पूछे की घर के बाकी कमाने वाले भी तो पैसा देते थे तो उनका कहना होता की ५००/- प्रति महीने से क्या होता है? ये दिखाई नहीं देता था कि ५०० रुपये प्रति महीने के हिसाब से उस व्यक्ति ने ६००० रुपये दिए है जो की उनके दिए हुए रुपयों से १६% ज्यादा है। अपने दिए हुए पैसों का तो वो वर्त्तमान समय के हिसाब से मूल्य निर्धारित करते थे जैसे की सन १९९४ में दिए हुए ५००० रुपये की कीमत सन २०२० में लगभग ५०,००० होगी लेकिन अगर किसी अन्य ने १९७० से १०० रुपये हर महीने दिए है तो इतरा कर कहते है कि "१०० ठे रुपिल्ली से कहीं घर चलता है!" जबकि सच्चाई ये थी की जब कोई १०० रुपये महीने का देता था तो उस वक्त एक बीघा जमीन उन्ही के गांव में १२०० कीमत की होती थी और आज वही जमीन लगभग ३०,००, ००० रुपयों की है। डमलू चाचा के डमरू का ही प्रभाव होता की कोई उनसे बहस नहीं करता और उनका आत्मविश्वास माऊंट एवरेस्ट की चोटियों पर चढ़ता जाता था और कहते रहते कि जो कुछ भी घर में दिख रहा है -- चाहे चल हो या अचल हो, लौकिक हो या अलौकिक हो सब उनका ही किया हुवा है। उनके इस विश्वास को और बल देने का काम चाची और उनकी बहने करती जब वो पूछती "बाबू आप तो घर बनवा रहे है बाकि लोग क्या कर रहे है?" तो डमलू चाचा शान से गर्दन हिला कर इस बात का आनंद लेते तथा गर्व की अनुभूति करते। लेकिन ये गर्व तथा आत्मोन्मुखीता धीरे धीरे पागलपन का रूप लेने लगी। वे यहाँ तक कहने लगे की आपने माँ बाप का भी बचपन से उन्होंने ही ललन पालन किया। ये बातें खैर उनकी मानसिक स्थिति की ही गवाही देतीं हैं। शायद किसी दिन ये भी कह दें कि अपने माता पिता की शादी का भी सारा खर्च उन्होंने ही वहन किया था।
डमलू चाचा बहुत ही धार्मिक प्रवृति के हैं। वे सर्वे भवानी सुखिन: के दर्शन में विश्वास करते हैं और रोज दो घंटा पूजा पाठ में लगाते हैं। इस पूजा में वे तीन लोटा जल चढ़ाते हैं। पहले लोटे का जल चढ़ाते हुए प्रार्थना करते हैं कि उनके सभी पड़ोसियों को खूब सारा धन-धान्य मिले। दूसरे लोटे के जल को चढ़ाते हुए अपने सभी रिश्तेदारों के लिए धन की प्रार्थना करते हैं। तीसरा लोटा चढ़ाते हुए कहते हैं कि पूजा तो मैंने की है इसीलिए इन दोनों लोगों का सारा धन मुझे मिल जाये।
डमलू चाचा धार्मिक के साथ-साथ अपने आप को न्यायप्रिय भी कहलवाना पसंद करते हैं और इसी क्रम में जब वो अपने भाइयों से अलग हुए तो पूरे घर पर ताला लगा कर कब्ज़ा कर लिए। उनके भाइयों के पास जो दो-एक कमरे बचे थे उसे भी खाली करवाने के लिए झगड़ा करने लगे। कभी मुख्यमंत्री जी को पत्र लिखते तो कभी कलेक्टर साहब को। हर जगह शिकायत दर्ज करवाते की उनके पुस्तैनी घर पर, जो है तो पुस्तैनी लेकिन उन्हें लगता है की उसपर उनका ही अकेले का अधिकार है, उनके भाइयों ने कब्ज़ा किया हुवा है। पुलिस वाले भी आते है, मामला देखते हैं, समझते हैं और समझा कर चले जाते हैं। गांव वाले भी उनकों समझाते हैं लेकिन डमलू चाचा को लगता है कि गांव वाले उनका साथ ना देकर अन्याय का साथ दे रहें है। डमलू चाचा गावों वालों को राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर के अंदाज़ में कोसते है और कहते हैं "जो तथस्ट है समय लिखेगा उनके उनके भी अपराध" और यहाँ भी डमरू की तरह बजने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
खेत का जब बटवारा हुवा तो पहले ये तय किया कि सिर्फ जमीन बटेंगी, उस जमीन पर जो पेड़ है या बोरिंग है वो सबकी रहेगी। पेड़ों से जो कुछ भी निकलेगा चाहे फल हो, लकड़ी हो या पेड़ों को काट कर बेचना हो, सब कुछ तीनों भाइयों में बराबर बटेगा। ऐसा कहक़र तो उन्होंने बड़ी चालाकी से वह जमीन ली जिसपर सारे पेड़ थे और बोरिंग थी। लेकिन अब कहते है की जिसके खेत में जो है उसपर उसी व्यक्ति का हक़ है। यहाँ वो पूंजीवादी हो जाते है। लेकिन दूसरे खेत में, जो दूसरे भाइयों के हिस्से में थे, स्थित पेड़ो को बिकने की बारी आयी तो वो साम्यवादी हो जाते है और बराबरी के सिद्धांत की बाते करते हैं।
ऐसा नहीं है कि डमलू चाचा को अपने घर में विरोध का सामना नहीं करना पड़ता। चाची का विरोध लड़ने के तरीके को लेकर होता है और कहतीं हैं की कैसे लड़े की सामने वाले को ज्यादा फायदा हो गया। इससे प्रभावित होकर डमलू चाचा अगली बार और भी जोश और नए-नए हथकंडों के साथ मैदान में उतरते हैं। दूसरा विरोध उनको अपने बड़े लडके 'लबधू' भइया और छोटे लडके 'डॉलर' बाबू से मिलता है। लेकिन अगले ही पल उनकों लगता है की पापा जो भी छेका रहे है वो आखिर में हमें ही मिलना है और महर्षि वाल्मीकि जब रत्नाकर डाकू थे तभी ये बात सिद्धः हो गयी थी की पाप सिर्फ पाप कर्म करने वालों को लगता है उस कर्म से फायदा लेने वालों को नहीं और फिर वो दोनों भी राजनाथ सिंह की तरह कड़ी निंदा करके निकल लेते है। हालाँकि सच्चाई ये है कि आज डमलू चाचा जिस संपत्ति पर कुंडली मारे बैठे है उसको २००५ में लबधू भइया ने ही कब्जिआया था। अपने हिस्से की खेती अलग बोने का विचार भी उन्ही का था और अपनी जोत की पूरी फसल बेचकर उसको अकेले अपने नाम पर बैंक में जमा कर लेना और खर्चे के लिए परिवार में सम्मिलित रहना भी उनका ही निर्णय था। मतलब डमलू चाचा जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं उसका बीजारोपण लबधू भइया ने ही किया था लेकिन समाज में अपने को अच्छा साबित करने की होड़ में अपने मुखारविंद से अपने पिताश्री की कड़ी निंदा कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर लेते है और समाज में ये कहते हुए कि "मैं तो पापा को समझा कर थक गया, करने दो उनकों जो करना है" कह कर निकल लेते है। कोई उनसे पूछे की वो जो करना चाहते है वही नहीं करने की तो सारी लड़ाई है।
वैसे लबधू भइया का भी कम हाथ नहीं है डमलू चाचा को उकसाने में। जब डमलू चाचा के बड़े भाई अपने हिस्से का घर बनवा रहे थे तो लबधू भइया ही घर पर थे। उस दौरान डमलू चाचा नें जो भी पैसे दिए लबधू भइया ने तो उड़ा दिए और सारा बिल फाड़ दिया अपने ताऊ जी पर कि इनके घर बनवाने में ही सारा पैसा खर्च हो गया है और डमलू चाचा तैयार हो गए लड़ने के लिए। अंधे को चाहिए आँखे और डमलू चाचा को चाहिए लड़ने का कारण।
डमलू चाचा परिवार में बटवारे के प्रबल विरोधी है और इसीलिए जब भी परिवार का कोई सदस्य बटवारे की बात करता है तो वे तुरंत झगड़ा शुरू कर देते हैं ये कहते हुवे कि कोई बटवारा नहीं होगा और पूरी की पूरी पारिवारिक और अगर हो सके तो सबकी अर्जित की हुई संपत्ति उनको अकेले ही मिले। उनका कहना है कि संपत्ति ही सारे क्लेश और दुःख का कारण है और वो नहीं चाहते की परिवार का कोई सदस्य संपत्ति की वजह से दुखी हो। इसीलिए संपत्ति और पैसे का पूरा बोझ और परिवार और समाज के हित में उससे सम्बद्ध सारे दुःख अकेले उठाना चाहते है।
जब खेतों का बटवारा हुआ तो पहले तो चालाकी से उस हिस्से के खेत ले लिए जिधर बोरिंग थी और बहुत सारे पेड़ थे जिन्हे उन्होंने बाद में देने से इंकार कर दिया। लेकिन खेतों की पैमाइस से ये पता चला की उन्होंने कुछ ज्यादा जमीन जोति हुयी है। पैमाइस के बाद निशानदेही हो गयी। बाद में जब उसपर मेड़ बांधने की बारी आयी तो चाचा लड़ बैठे की वो विभाजन के सख्त खिलाफ हैं। बाद में जब उनके भाइयों ने मेड़ बंधवा दिया, मज़दूरों को पैसे भी दे दिए तो लगे लड़ने। एक तो आधी मज़दूरी के पैसे उनको देने थे वो बात नगण्य हो गयी और उलटे पंचायत बुला ली की उनके साथ अन्याय हो रहा है। अन्याय भी क्या कि उनके भाइयों ने अपने खेत पर मेड़ बाँध लिया, अपना कब्ज़ा ले लिया। मेड़ बांधने के पहले डमलू चाचा करीब आधा बीघा खेत ज्यादा कब्जियाये थे। दुखः होना तो स्वाभाविक है।