डमलू चाचा -भाग २
डमलू चाचा कहानी को सराहने के लिए सभी पाठकों का बहुत आभार। प्रस्तुत है आगे की कहानी।
डमलू चाचा जो भी काम करते उनके अनुसार सिर्फ वही श्रेष्ठ होता। उनके अनुसार सिर्फ वही एक आर्यपुत्र हैं बाकि लोग मलेक्ष हैं। उसके द्वारा किये गए कामों के अलावां बाकि सभी काम किसी भी गिनती में नहीं आते थे। उनके माँ - बाप की पूरी देख रेख तो उनके छोटे भाई ने की और अंतिम समय तक वही माँ-बाप की देखभाल किये लेकिन जब श्रेय लेने की बारी आती है तो डमलू चाचा हमेशा अपने द्वारा करवाए गए अपनी माँ के आँखों के इलाज की चर्चा करते है और बड़ी ही बेशर्मी के साथ गिनवाते हैं की "आज जो तुम ये दुनियां देख पा रही हो वह मेरी वजह से है। इसके बावजूद तुम पूरी पुस्तैनी संपत्ति मेरे नाम नहीं कर सकती " . उनकी माँ जब भी कहती की मेरे तीनों बेटों ने जब जरूरत पड़ी तो मेरा देख भाल किया तो पारा आसमान की बुलंदियों को छूने लगता है की क्यों तुम कोई भी श्रेय मेरे अलावां किसी और बेटे को दोगी। कई बार तो अपनी माँ को मारने के लिए लपके भी थे लेकिन लोगो द्वारा बीच बचाओ कर मामले को शांत किया गया।
डमलू चाचा तो अपनी माँ को मारने को दौड़े थे पर मार नहीं पाए लेकिन कहते हैं ना कि वो बेटा ही क्या जो बाप के अधूरे कामों को ना पूरा करे? उनका ये काम लबधू भइया ने पूरा कर दिया और एक सुपुत्र होनें का पूरा धर्म उठाया। बात उन दिनों की है जब छोटे चाचा (डमलू चाचा के छोटे भाई ) के पुत्र "मैंगो बाबू " पाँचवी में पढ़ते थे। मैंगो बाबू अपने नाम के ही अनुरूप मैंगो के शौकीन थे और जहां आम देखते वहीं लपलपाने लगते। डमलू चाचा के घर के सामने ही एक आम का पेड़ था और उसपर आम भी खूब लगे थे। बस क्या था, मैंगो बाबू चढ़ गए आम तोड़ने के लिए। लबधू भइया उन दिनों घर पर ही रहकर 'लबधू ग्रुप ऑफ़ इंडस्ट्रीज' की स्थापना करने में लगे हुए थे और अपनी तुलना धीरूभाई अम्बानी से करने लगे थे। उस बच्चे का आम तोडना उनसे देखा नहीं गया और उसको लगे मारने। इतना देख उनकी दादी जो इत्तेफ़ाक़ से उस बच्चे की भी दादी थी आग बहुबा हो गयी और लबधू भइया को डांटने लगी की क्यों बच्चे को मार रहे हो? अब गुस्सा होने की बारी लबधू भइया की थी। गुस्से में बोले "जिन आँखों से तुम इस आम के पेड़ को देख रही हो, ये आखे मेरे पापा की दी हुई है और तुम मेरा पक्ष लेने के बजाय उसका पक्ष ले रही हो। इसका खामियाजा तो तुझे भुगतना पड़ेगा बुढ़िया " . और इतना कहकर दादी को उठा कर जोर से पटक दिए। दादी दर्द के मारे कराहने लगी तो उनको अंदर के कमरे में बंद कर दिया ताकि उनकी आवाज बाहर न जा सके।
बाद में दादी की मृत्यु के कुछ पहले उनका एक्स रे करवाया गया क्यों कि उनको कोई तात्कालिक चोट लगी थी तो पता चला की उनकी एक हड्डी करीब दस साल पहले ही टूटी थी जो धीरे धीरे अपने मूल स्थान से हटकर कहीं और जुट गयी थी। उस बृद्ध महिला को कितनी तकलीफें उठानी पड़ी होगी उस चोट की वजह से।
डमलू चाचा के झगड़े की वजह से दादी ऊपर के कमरे में रहने लगी थी। नीचे जिस कमरे में दादी रहती थी उसमें डमलू चाचा नें अपना सामान ठूस दिया ये कहते हुए की इसको मैंने बनवाया है और इसमें मैं रहूँगा। उस वक़्त भी वो उन्ही की माँ थीं जिसको उन्होंने उस कमरे से निकला और दादी चुप चाप अपना बोरिया बिस्तर लेकर ऊपर चली गयी। ऊपर भी वो जब तब जाकर उनसे लड़ने लगते की ऊपर का घर भी मैंने बनवाया है लेकिन दादी तब अपना विरोध दर्ज करवाती की ऊपर वाला मकान उनके बड़े लड़के ने बनवाया है।
अब जब दादी और दादा दोनों ही वैकुण्ठ धाम को चले गए है तो भी डमलू चाचा का उनसे विरोध कुछ कम नहीं हुवा है। सारी दुनिया पितृ पक्ष में अपने पितरों का तर्पण करती है तो डमलू चाचा कहते है की पितरों ने उन्हें दिया ही क्या है कि उनका तर्पण किया जाये और बड़े ही शान से दाढ़ी रोज बनाते है तथा हर वो काम करते है जो वर्जित है उस दौरान जैसे की प्रथा है कि उन १५ दिनों में दाढ़ी इत्यादि नहीं बनायीं जाती। इस तरह के हैं हमारे निराले डमलू चाचा।
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