Friday, August 19, 2022

 

चहकती रहो 

चहकती रहती है हमेशा, वो एक बुलबुली  है 

घर में रहती है तो रहती मची, खलबली सी है 

मेरी बेटी, मेरा नाज़, वो है मेरे दिल का ताज 

मुझको हमेशा सजाते रहती, खुद तो वो चुलबुली सी है 


किसी को मम्मी बनाया, मुझको पापा बनाया 

किसी को दादी बनाया, किसी को दादा बनाया 

बन गए नाना, नानी, मामा, चाचा, मौसी जैसे नए शब्द 

हर एक रिश्ते को नया नया जामा पहनाया 


चहकती रहो, निखरती रहो 

मेरे आँगन में तुम महकती रहो 

जीवन के सारे रंग बिखेरती रहो 

सूरज की तरह दुनिया में चमकती रहो 

Thursday, June 30, 2022

डमलू चाचा-भाग ३ 

डमलू चाचा की नीचता  

साथियों अब तक तो आप को समझ आ गया होगा की डमलू चाचा कितने उच्च श्रेणी के नीच व्यक्ति हैं।  उनकी नीचता के किस्से जितने कहे जाये उतने कम होंगे। आज उनकी नीचता के कुछ किस्से प्रस्तुत करता हूँ। 

डमलू चाचा के छोटे भाई ने पुस्तैनी संपत्ति में अपना हिस्सा अलग कर लिया।  अपने हिस्से में आयी खेती और बाकि पारिवारिक सम्पत्तियों से अपने परिवार का भरण पोषण करने लगे।  इसी दौरान अपने हिस्से में आये हुए खेत में उन्होंने अपना अलग घर बनवा लिया यानि पुस्तैनी मकान से हटकर अपना बिलकुल अलग मकान।  डमलू चाचा को ये कहाँ अच्छा लगता? अब आये दिन ये भी कहते रहते हैं कि उस मकान में भी उनका हिस्सा है जो उनके छोटे भाई नें अलग होकर विशुद्ध रूप से अपने निजी पैसे से बनवाया है। ध्यान देने योग्य बात ये है कि उस मकान में डमलू चाचा का कोई भी योगदान नहीं है। आये दिन ये धमकी देते रहते हैं कि अगर उस मकान में हिस्सा नहीं मिला तो उसके लिए न्यायालय में जायेंगे और घर गिरवा देंगे। मतलब साफ़ है की उनके अलावा अगर कोई आराम से रहता है तो डमलू चाचा को उस व्यक्ति का सुख देखा नहीं जाता। नीचता की पराकाष्ठा है की अगर किसी नें  संघर्ष और लगन से अपने और अपने परिवार के लिए कुछ किया है तो ये बातें डमलू चाचा के लिए असहनीय हैं। 

चलिए अब उनकी नीचता की दूसरी कहानियों पर आते हैं। उनके बड़े भाई नें अपने रिटायरमेंट के बाद जो पैसे मिले थे उससे अपने लिए पुस्तैनी घर के प्रथम तल पर दो कमरे बनवाये। यहाँ भी याद दिलाता चलूँ की पूरे घर पर डमलू चाचा का कब्ज़ा था।  सामूहिक रूप से जो घर बना था (जिसमे सभी भाइयों ने अपना पैसा लगाया था), उसपर डमलू चाचा कब्जियाये हुए थे। उनके बड़े भाई ने सोचा की झगड़ा करने से बढियाँ है की निचे के कमरों में डमलू चाचा और उनके परिवार रहने  जाये और अपने लिए ऊपर दो  कमरे बनवा लेते हैं।  उन्होंने डमलू चाचा और उनके बड़े बेटे लबधू भइया से बात करके ऊपर के दोनों कमरे बनवाये। कमरे काफी अच्छे और हवादार भी बन गए।  अब डमलू चाचा का दिमाग चलने लगा की इतने अच्छे कमरे तो सिर्फ मेरे पास रहने चाहिए।  डमलू चाचा के अतिरिक्त कोई उस घर में आराम से रह ले यह कैसे हो सकता है। डमलू चाचा रोज  उन कमरों पर भी अपनी दावेदारी पेश करने लगे। मक्कारी की हद तो तब तो गयी जब वो पूरी बेशर्मी से कहने लगे कि "ये दोनों कमरे मैंने अपने पैसे से बनवाये हैं और किसी नें कोई सहयोग नहीं दिया है। " नीचे के पूरे घर पर भी कब्ज़ा जमा कर उनका पेट नहीं भरा और यहाँ भी किसी और ने अपने जीवन  की कमाई से अगर अपने लिए कुछ बनवा लिया तो उनकी छाती पर सांप लोटने लगा।

कमरों को लेने के लिए उन्होंने एक चाल चली जो मक्कारी की पूरी पराकाष्ठा पार कर देती है।  उन्होंने मुख्यमंत्री पोर्टल पर शिकायत दर्ज की कि पूरा घर ऊपर से लेकर निचे तक उन्होंने ही बनवाया है। उनके बड़े भाई को जब अपने बच्चों की शादी करनी थी तो डमलू चाचा ने दया भाव दिखते हुए ऊपर के दोनों कमरे अपने बड़े भाई को  दिए जिसे बाद में उनके बड़े भाई ने कब्ज़ा कर लिया। डमलू चाचा नें गुहार लगायी की दोनों कमरे खाली करवा कर उनको दिए जाये। हालाँकि वो उसमें कामयाब नहीं हो सके लेकिन ये शिकायत अपने आप में काफी है ये बताने लिए कि डमलू चाचा कितने घटिया, गिरे हुए और नीच व्यक्ति हैं। शिकायत दर्ज करवानें का मतलब बिलकुल साफ़ था की उनके बड़े भाई न सिर्फ अपनी गाढ़ी कमाई से बनवाया हुवा घर छोड़े बल्कि बेघर होकर सड़क पर आ जाएँ।    

उनके बड़े भाई द्वारा बनवाये घर को कब्ज़ा करने का प्लान अचानक नहीं उठा था डमलू चाचा के मन में। पहले उनका  प्लान ये था कि उसमें मूलभूत सुविधाएँ लगाने ही नहीं देतें है जैसे की बिजली-पानी और बिना पानी और बिजली के कोई कैसे रहेगा। इसीलिए जब पानी के लिए ऊपर टंकी बैठाने का काम हो  था तो डमलू चाचा ने रोकने की पूरी कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो पाए और ऊपर के कमरों को कब्ज़ा करने का प्लान धराशायी हो गया।  फिर डमलू चाचा को खुलकर नंगा होना पड़ा और उनका घिनौना चेहरा दुनिया के सामने आ गया।                                                                                                                                                          

Sunday, June 26, 2022

डमलू चाचा -भाग २ 

डमलू चाचा कहानी को सराहने के लिए सभी पाठकों का बहुत आभार।  प्रस्तुत है आगे की कहानी। 

डमलू चाचा जो भी काम करते उनके अनुसार सिर्फ वही श्रेष्ठ होता। उनके अनुसार सिर्फ वही एक आर्यपुत्र हैं बाकि लोग मलेक्ष हैं।  उसके द्वारा किये गए कामों के अलावां बाकि सभी काम किसी भी गिनती में नहीं आते थे।  उनके माँ - बाप की पूरी देख रेख तो उनके छोटे भाई ने की और अंतिम समय तक वही माँ-बाप की देखभाल किये लेकिन जब श्रेय लेने की बारी आती है तो डमलू चाचा हमेशा अपने द्वारा करवाए गए अपनी माँ के आँखों के इलाज की चर्चा करते है और बड़ी ही बेशर्मी के साथ गिनवाते हैं की "आज जो तुम ये दुनियां देख पा रही हो वह मेरी वजह से है।  इसके बावजूद तुम पूरी पुस्तैनी संपत्ति मेरे नाम नहीं कर सकती " . उनकी माँ जब भी कहती की मेरे तीनों बेटों ने जब जरूरत पड़ी तो मेरा देख भाल किया तो पारा आसमान की बुलंदियों को छूने लगता है की क्यों तुम कोई भी श्रेय मेरे अलावां किसी और बेटे को दोगी।  कई बार तो अपनी माँ को मारने के लिए लपके भी थे लेकिन लोगो द्वारा बीच बचाओ कर मामले को शांत किया गया।  

डमलू चाचा तो अपनी माँ को मारने को दौड़े थे पर मार नहीं पाए  लेकिन कहते हैं ना कि वो बेटा ही क्या जो बाप के अधूरे कामों को ना पूरा करे? उनका ये काम लबधू भइया ने पूरा कर दिया और एक सुपुत्र होनें का पूरा धर्म उठाया।  बात उन दिनों की है जब छोटे चाचा (डमलू चाचा के छोटे भाई ) के पुत्र "मैंगो बाबू " पाँचवी में पढ़ते थे।  मैंगो बाबू अपने नाम के ही अनुरूप मैंगो के शौकीन थे और जहां आम देखते वहीं लपलपाने लगते।  डमलू चाचा के घर के सामने ही एक आम का पेड़ था और उसपर आम भी खूब लगे थे।  बस क्या था, मैंगो बाबू चढ़ गए आम तोड़ने के लिए।  लबधू भइया उन दिनों घर पर ही रहकर 'लबधू ग्रुप ऑफ़ इंडस्ट्रीज' की स्थापना करने में लगे हुए थे और अपनी तुलना धीरूभाई अम्बानी से करने लगे थे।  उस बच्चे का आम तोडना उनसे देखा नहीं गया और उसको लगे मारने।  इतना देख उनकी दादी जो इत्तेफ़ाक़ से उस बच्चे की भी दादी थी आग बहुबा हो गयी और लबधू भइया को डांटने लगी की क्यों बच्चे को मार रहे हो? अब गुस्सा होने की बारी लबधू भइया की थी।  गुस्से में बोले "जिन आँखों से तुम इस आम के पेड़ को देख रही हो, ये आखे मेरे पापा की दी हुई है और तुम मेरा पक्ष लेने के बजाय उसका पक्ष ले रही हो।  इसका खामियाजा तो तुझे भुगतना पड़ेगा बुढ़िया " . और इतना कहकर दादी को उठा कर जोर से पटक दिए।  दादी दर्द के मारे कराहने लगी तो उनको अंदर के कमरे में बंद कर दिया ताकि उनकी आवाज बाहर न जा सके। 

बाद में दादी की मृत्यु के कुछ पहले उनका एक्स रे करवाया गया क्यों कि उनको कोई तात्कालिक चोट लगी थी तो पता चला की उनकी एक हड्डी करीब दस साल पहले ही टूटी थी जो धीरे धीरे अपने मूल स्थान से हटकर कहीं और जुट गयी थी।  उस बृद्ध महिला को कितनी तकलीफें उठानी पड़ी होगी उस चोट की वजह से। 

डमलू चाचा के झगड़े की वजह से दादी ऊपर के कमरे में रहने लगी थी। नीचे जिस कमरे में दादी रहती थी उसमें डमलू चाचा नें अपना सामान ठूस दिया ये कहते हुए की इसको मैंने बनवाया है और इसमें मैं रहूँगा।  उस वक़्त भी वो उन्ही की माँ थीं जिसको उन्होंने उस कमरे से निकला और दादी चुप चाप अपना बोरिया बिस्तर लेकर ऊपर चली गयी। ऊपर भी वो जब तब जाकर उनसे लड़ने लगते की ऊपर का घर भी मैंने बनवाया है लेकिन दादी तब अपना विरोध दर्ज करवाती की ऊपर वाला मकान उनके बड़े लड़के ने बनवाया है।  

अब जब दादी और दादा दोनों ही वैकुण्ठ धाम को चले गए है तो भी डमलू चाचा का उनसे विरोध कुछ कम नहीं हुवा है।  सारी दुनिया पितृ पक्ष में अपने पितरों का तर्पण करती है तो डमलू चाचा कहते है की पितरों ने उन्हें दिया ही क्या है कि उनका तर्पण किया जाये और बड़े ही शान से दाढ़ी रोज बनाते है तथा हर वो काम करते है जो वर्जित है उस दौरान जैसे की प्रथा  है कि उन १५ दिनों में दाढ़ी इत्यादि नहीं बनायीं जाती।  इस तरह के हैं हमारे निराले डमलू चाचा।  

 

Wednesday, June 8, 2022

डमलू चाचा 

एक है हमारे डमलू चाचा।  अगर डमलू शब्द सुनकर आपको भी लग रहा है कि 'ल' के जगह 'र' होना चाहिए तो आप बिलकुल सही है।  'डमलू' नाम उनको 'डमरू' से ही मिला है क्योकि ये भी डमरू की तरह दोनों तरफ से बजते रहते है। जैसे की हमारे देश के कुछ लोगों को लगता है कि सृष्टि की रचना उन्होंने ही की है डमलू चाचा भी कहते रहते हैं कि "सृष्टि की रचना तो मैंने हि की है लोग तो झूठ मुठ ही ब्रह्मा जी श्रेय देने लगे हैं"।  यही बात वे दिन भर डमरू की तरह बजते हुए सबको बताते रहते है। एक कहावत कही जाती है कि कोई काम करो या ना करो उसकी फिक्र जरूर करो और फिक्र सिर्फ मत किया करो बल्कि उसका जिक्र जरूर करो।  डमलू चाचा जब भी कमा कर गांव आते तो अपने करतबों का जिक्र करना नहीं भूलते।  उनके इस काम में उनकी सालियाँ और कुछ रिश्तेदार भी खूब सहयोग देते क्यों कि उन लोगों को भी लगता था कि डमलू चाचा के कहने पर लोग पूजा न सही, इज़्ज़त तो देने ही लगेंगे कि वो कितने बड़े आदमी के रिश्तेदार हैं। डमलू चाचा साल में ५,०००/- रुपये ही देते थे और और उसका जिक्र ऐसे करते थे मानों कि इस ५,०००/- रुपयों से ही पूरा घर बन रहा है, गांव में जितने लोग रहते है उनका खर्च भी उसी से चल रहा है, खेती के लिए जितने उपकरण चाहिए वह भी उसी ५,०००/- में ख़रीदा जा रहा है। और इसी वजह से गांव का सबसे समृद्ध व्यक्ति होने का तमगा भी स्वयं अपने आप को प्रदान कर लेते थे।   

हास्यास्पद स्थिति तो तब हो जाती अगर कोई पूछ ले कि चाचा अगर आप इतने कमाने वाले थे तो बाग़ और खलिहान वाली जंमीने क्यों बेचनी पड़ी और गांव का पुस्तैनी मकान बनाने में वही पैसे ज्यादातर लगे है तो मजाल है वह व्यक्ति बिना जलील हुए चला जाये।  उस व्यक्ति से डमलू चाचा तब तक झगड़ा करते है जब तक थक कर सो नहीं जाते। डमलू चाचा से कोई झगड़े में जीत जाये ऐसा कोई अभी तक तो नहीं मिला। इसकी मूल वजह ये है की कोई भी जब झगड़ा करता है तो मूलतः तर्क और तथ्यों के साथ अपनी बात रखता है और यही वो  मारा जाता है। डमलू चाचा ने तर्क और तथ्य दोनों से किनारा कर लिया है और इसी कारण उनसे कोई लड़ नहीं सकता। वे झगड़ा करते हुवे झगड़े की प्रक्रिया को उसके न्यूनतम स्तर तक खींच कर लातें हैं और सामने वाला नैतिक रूक से गिरते हुवे बिलकुल निचे आ जाता है तो उस स्तर पर अपने अनुभवों से सामने वाले को मात दे देते है।   

डमलू चाचा कमाने तो १९८० में गए लेकिन उनकी कमाई जमी १९८७ से।  १९८७ से १९९९, मूलतः १२ साल ही वे ढंग से कमाए थे और जो भी पैसा देना होता था, इन १२ सालों में ही दिया। लेकिन जब झगड़ा होता है तो सिंघम की तरह कूद-कूद कर ये बताते है की मैंने ३० साल कमा कर इन लोगों को पैसा दिया और ये लोग आज पुस्तैनी संपत्ति में अपना हिस्सा मांग रहे है जो की सिर्फ मेरी है। ये बात अलग है की बाग़ और खलिहान की आधी जमीनें इसी कालखंड में बिक गयी।  

वे जब अलग हुए तो शायद ये दुनिया का पहला ऐसा पारिवारिक बंटवारा होगा जहाँ डमलू चाचा ने संपत्ति तो ले ली लेकिन खर्च सामूहिक ही रहने दिया।  इसको विस्तार से समझते है। उन्होंने अपने हिस्से का खेत सन २००५ में ही अलग कर लिया लेकिन उनका और उनके परिवार का खान - पान और बाकि खर्च परिवार में सामूहिक ही होता रहा। जब फसल कट गयी तो अपने हिस्से की पूरी फसल बेच दी और अपने खान पान के खर्चे, दवाई, उत्सव इत्यादि के सभी खर्चों के लिए परिवार के सामूहिक खाते से पैसा मांगते रहे। यानि मुनाफा अकेलिया और खर्चा सरकारी। क्या बात है डमलू चाचा?    

हमारे प्यारे डमलू चाचा बहुत ही आत्ममुखी है।  उनको अपने अलावा और कुछ दिखता ही नहीं।  अगर कोई पूछे की घर के बाकी कमाने वाले भी तो पैसा देते थे तो उनका कहना होता की ५००/- प्रति महीने से क्या होता है? ये दिखाई नहीं देता था कि ५०० रुपये प्रति महीने के हिसाब से उस व्यक्ति ने ६००० रुपये दिए है जो की उनके दिए हुए रुपयों से १६% ज्यादा है।  अपने दिए हुए पैसों का तो वो वर्त्तमान समय के हिसाब से मूल्य निर्धारित करते थे जैसे की सन १९९४ में दिए हुए ५००० रुपये की कीमत सन २०२० में लगभग ५०,००० होगी लेकिन अगर किसी अन्य ने १९७० से १०० रुपये हर महीने दिए है तो इतरा कर कहते है कि "१०० ठे रुपिल्ली से कहीं घर चलता है!" जबकि सच्चाई ये थी की जब कोई १०० रुपये महीने का देता था तो उस वक्त एक बीघा जमीन उन्ही के गांव में १२०० कीमत की होती थी और आज वही जमीन लगभग ३०,००, ००० रुपयों की है।  डमलू चाचा के डमरू का ही प्रभाव होता की कोई उनसे बहस नहीं करता और उनका आत्मविश्वास माऊंट एवरेस्ट की चोटियों पर चढ़ता जाता था और कहते रहते कि जो कुछ भी घर में दिख रहा है -- चाहे चल हो या अचल हो, लौकिक हो या अलौकिक हो सब उनका ही किया हुवा है।  उनके इस विश्वास को और बल देने का काम चाची और उनकी बहने करती जब वो पूछती "बाबू आप तो घर बनवा रहे है बाकि लोग क्या कर रहे है?" तो डमलू चाचा शान से गर्दन हिला कर इस बात का आनंद लेते तथा गर्व की अनुभूति करते। लेकिन ये गर्व तथा आत्मोन्मुखीता धीरे धीरे पागलपन का रूप लेने लगी।  वे यहाँ तक कहने लगे की आपने माँ बाप का भी बचपन से उन्होंने ही ललन पालन किया। ये बातें खैर उनकी मानसिक स्थिति की ही गवाही देतीं हैं। शायद किसी दिन ये भी कह दें कि अपने माता पिता की शादी का भी सारा खर्च उन्होंने ही वहन किया था। 

डमलू चाचा बहुत ही धार्मिक प्रवृति के हैं।  वे सर्वे भवानी सुखिन: के दर्शन में विश्वास करते हैं और रोज दो घंटा पूजा पाठ में लगाते हैं। इस पूजा में वे तीन लोटा जल चढ़ाते हैं। पहले लोटे का जल चढ़ाते हुए प्रार्थना करते हैं कि उनके सभी पड़ोसियों को खूब सारा धन-धान्य मिले।  दूसरे लोटे के जल को चढ़ाते हुए अपने सभी रिश्तेदारों के लिए धन की प्रार्थना करते हैं।  तीसरा लोटा चढ़ाते हुए कहते हैं कि पूजा तो मैंने की है इसीलिए इन दोनों लोगों का सारा धन मुझे मिल जाये।  

डमलू चाचा धार्मिक के साथ-साथ अपने आप को न्यायप्रिय भी कहलवाना पसंद करते हैं और इसी क्रम में जब वो अपने भाइयों से अलग हुए तो पूरे घर पर ताला लगा कर कब्ज़ा कर लिए।  उनके भाइयों के पास जो दो-एक कमरे बचे थे उसे भी खाली करवाने के लिए झगड़ा करने लगे। कभी मुख्यमंत्री जी को पत्र लिखते तो कभी कलेक्टर साहब को।  हर जगह शिकायत दर्ज करवाते की उनके पुस्तैनी घर पर, जो है तो पुस्तैनी लेकिन उन्हें लगता है की उसपर उनका ही अकेले का अधिकार है, उनके भाइयों ने कब्ज़ा किया हुवा है।  पुलिस वाले भी आते है, मामला देखते हैं, समझते हैं और समझा कर चले जाते हैं। गांव वाले भी उनकों समझाते हैं लेकिन डमलू चाचा को लगता है कि गांव वाले उनका साथ ना देकर अन्याय का साथ दे रहें है।  डमलू चाचा गावों वालों को राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर के अंदाज़ में कोसते है और कहते हैं "जो तथस्ट है समय लिखेगा उनके उनके भी अपराध" और यहाँ भी डमरू की तरह बजने में कोई कसर नहीं छोड़ते। 

खेत का जब बटवारा हुवा तो पहले ये तय किया कि सिर्फ जमीन बटेंगी, उस जमीन पर जो पेड़ है या बोरिंग है वो सबकी रहेगी।  पेड़ों से जो कुछ भी निकलेगा चाहे फल हो, लकड़ी हो या पेड़ों को काट कर बेचना हो, सब कुछ तीनों भाइयों में बराबर बटेगा।  ऐसा कहक़र तो उन्होंने बड़ी चालाकी से वह जमीन ली जिसपर सारे पेड़ थे और बोरिंग थी।  लेकिन अब कहते है की जिसके खेत में जो है उसपर उसी व्यक्ति का हक़ है।  यहाँ वो पूंजीवादी हो जाते है।  लेकिन दूसरे खेत में, जो दूसरे भाइयों के हिस्से में थे, स्थित पेड़ो को बिकने की बारी आयी तो वो साम्यवादी हो जाते है और बराबरी के सिद्धांत की बाते करते हैं।   

ऐसा नहीं है कि डमलू चाचा को अपने घर में विरोध का सामना नहीं करना पड़ता।  चाची का विरोध लड़ने के तरीके को लेकर होता है और कहतीं हैं की कैसे लड़े की सामने वाले को ज्यादा फायदा हो गया।  इससे प्रभावित होकर डमलू चाचा अगली बार और भी जोश और नए-नए हथकंडों के साथ मैदान में उतरते हैं। दूसरा विरोध उनको अपने बड़े लडके 'लबधू' भइया और छोटे लडके 'डॉलर' बाबू से मिलता है।  लेकिन अगले ही पल उनकों लगता है की पापा जो भी छेका रहे है वो आखिर में हमें ही मिलना है और महर्षि वाल्मीकि जब रत्नाकर डाकू थे तभी ये बात सिद्धः हो गयी थी की पाप सिर्फ पाप कर्म करने वालों को लगता है उस कर्म से फायदा लेने वालों को नहीं और फिर वो दोनों भी राजनाथ सिंह की तरह कड़ी निंदा  करके निकल लेते है। हालाँकि सच्चाई ये है कि आज डमलू चाचा जिस संपत्ति पर कुंडली मारे बैठे है उसको २००५ में लबधू भइया ने ही कब्जिआया था।  अपने हिस्से की खेती अलग बोने का विचार भी उन्ही का था और अपनी जोत की पूरी फसल बेचकर उसको अकेले अपने नाम पर बैंक में जमा कर लेना और खर्चे के लिए परिवार में सम्मिलित रहना भी उनका ही निर्णय था।  मतलब डमलू चाचा जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं उसका बीजारोपण लबधू भइया ने ही किया था लेकिन समाज में अपने को अच्छा साबित करने की होड़ में अपने मुखारविंद से अपने पिताश्री की कड़ी निंदा कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर लेते है और समाज में ये कहते हुए कि "मैं तो पापा को समझा कर थक गया,  करने दो उनकों जो करना है" कह कर निकल लेते है।  कोई उनसे पूछे की वो जो करना चाहते है वही नहीं करने की तो सारी लड़ाई है।

वैसे लबधू भइया का भी कम हाथ नहीं है डमलू चाचा को उकसाने में।  जब डमलू चाचा के बड़े भाई अपने हिस्से का घर बनवा रहे थे तो लबधू भइया ही घर पर थे।  उस दौरान डमलू चाचा नें जो भी पैसे दिए लबधू भइया ने तो उड़ा दिए और सारा बिल फाड़ दिया अपने ताऊ जी पर कि इनके घर बनवाने में ही सारा पैसा खर्च हो गया है और डमलू चाचा तैयार हो गए लड़ने के लिए।  अंधे को चाहिए आँखे और डमलू चाचा को चाहिए लड़ने का कारण।    

डमलू चाचा परिवार में बटवारे के प्रबल विरोधी है और इसीलिए जब भी परिवार का कोई सदस्य बटवारे की बात करता है तो वे तुरंत झगड़ा शुरू कर देते हैं ये कहते हुवे कि कोई बटवारा नहीं होगा और पूरी की पूरी पारिवारिक और अगर हो सके तो सबकी अर्जित की हुई संपत्ति उनको अकेले ही मिले।  उनका कहना है कि संपत्ति ही सारे क्लेश और दुःख का कारण है और वो नहीं चाहते की परिवार का कोई सदस्य संपत्ति की वजह से दुखी हो।  इसीलिए संपत्ति और पैसे का पूरा बोझ और परिवार और समाज के हित  में उससे सम्बद्ध सारे दुःख अकेले उठाना चाहते है।

जब खेतों का बटवारा हुआ तो पहले तो चालाकी से उस हिस्से के खेत ले लिए जिधर बोरिंग थी और बहुत सारे पेड़ थे जिन्हे उन्होंने बाद में देने से इंकार कर दिया। लेकिन खेतों की पैमाइस से ये पता चला की उन्होंने कुछ ज्यादा जमीन जोति हुयी है।  पैमाइस के बाद निशानदेही हो गयी।  बाद में जब उसपर मेड़ बांधने की बारी आयी तो चाचा लड़ बैठे की वो विभाजन के सख्त खिलाफ हैं।  बाद में जब उनके भाइयों ने मेड़ बंधवा दिया, मज़दूरों को पैसे भी दे दिए तो लगे लड़ने। एक तो आधी मज़दूरी के पैसे उनको देने थे वो बात नगण्य हो गयी और उलटे पंचायत बुला ली की उनके साथ अन्याय हो रहा है।  अन्याय भी क्या कि उनके भाइयों ने अपने खेत पर मेड़ बाँध लिया, अपना कब्ज़ा ले लिया।  मेड़ बांधने के पहले डमलू चाचा करीब आधा बीघा खेत ज्यादा कब्जियाये थे।  दुखः होना तो स्वाभाविक है।  

Monday, May 9, 2022

 प्यार, सम्भोग , रचनात्मकता और जीवन


समय के साथ, मैं समाज में हो रही एक बहुत ही दिलचस्प बात को देख रहा हूं। एक तरफ, हम प्यार, रोमांस और अंत में सम्भोग में लगे लड़के और लड़कियों की जोड़ी देख रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ मेरी अक्सर अपने कुछ शादीशुदा दोस्तों से चर्चा होती है और वे कहते हैं कि उनका प्रेम जीवन खासकर सेक्स लाइफ धीरे-धीरे काफी उबाऊ जा रही है। एक तरफ हम पाते हैं कि किसी के स्नेह और प्यार का स्तर केवल सेक्स के स्तर तक ही सिमट कर रह गया है और दूसरी तरफ जो शादीशुदा हैं उन्हें अपने जीवनसाथी के साथ बिताने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल रहा है और ऐसे लोगों की एक लम्बी कतार है। शादी हो गयी है तो साथ बैठने का समय नहीं है, साथ है तो बच्चे नहीं चाहिए , बच्चे चाइये तो हो नहीं रहे है क्योकि उनका स्वास्थ्य ऐसा नहीं है की बच्चे पैदा कर सकें।  जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई है वे सेक्स के लिए काफी बेताब दिख रहे हैं और जो शादीशुदा हैं उन्हें अपने लिए बच्चा पैदा करने का भी समय नहीं मिल रहा है। इसके कई संभावित कारण हैं लेकिन जो कारण मेरे दिमाग में सबसे ज्यादा आते हैं, वे हैं हमारी संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, विचारधाराएं और कुछ हद तक यौन शिक्षा का अभाव।


सामान्य रूप से सामाजिक विज्ञान और विशेष रूप से प्रबंधन के छात्र होने के नाते, इसने मेरा ध्यान खींचा है। इसके अलावा, एक पुरुष होने के नाते, चर्चा के विषय के रूप में सेक्स हमेशा बहुत मसालेदार और आकर्षक होता है, हालांकि सार्वजनिक रूप से हम में से कई लोग इससे इनकार कर सकते हैं। इसके अलावा, पिछले हफ्ते मैं "पिंक" फिल्म देख रहा था। फिल्म में चित्रित स्थितियों ने भी इस लेख को लिखने के लिए एक प्रेरणा दी है, हालांकि यह विशेष रूप से लिंग के मुद्दों पर नहीं है। 

मेरे बचपन के एक दोस्त ने मुझे बताया कि उसकी पत्नी उससे कहा करती है कि वह उनकी शादी के बाद से थोड़ा उबाऊ हो गया है और बहुत रसदार नहीं है। उसकी पत्नी अपनी हर ख़ुशी के लिए उस पर निर्भर है और हमारी समाज की विचारधाराओं की शिकार महसूस करने लगी है। वह समझाता चला गया कि वह अपने आप को बहुत दोषी और उदास महसूस करने लगा है। उसके चेहरे से भी ऐसा ही लग रहा था।  मुझे याद है मैंने उससे कहा था कि उसकी पत्नी अपने भावों में बहुत ईमानदार है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हर आदमी अंत में थोड़ा उबाऊ नहीं बल्कि बहुत उबाऊ हो जाता है। क्या कभी किसी आदमी ने इस तथ्य को महसूस किया है कि जिसे वे प्यार कहते हैं वह बार-बार कुछ बेवकूफ जिमनास्टिक की पुनरावृत्ति है? दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे बेवकूफी भरे खेल में आदमी ही हारता है। वह अपनी ऊर्जा को नष्ट कर रहा है। महिला आंखें बंद रखती है। उस दौरान वह क्या सोच रही होगी? मुझे यकीन है कि वह सोच रही होगी कि यह सब सिर्फ दो या तीन मिनट का सवाल है और यह दुःस्वप्न समाप्त हो जाएगा। 

विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने इतनी प्रगति की है। लेकिन मुझे कुछ गर्भ निरोधकों के अलावा प्रेम निर्माण के संबंध में कोई महत्वपूर्ण नवाचार नहीं मिला। हमने हर तरह के नवाचार किए हैं लेकिन हमने यह क्यों मान लिया है कि प्यार करते हुए बार-बार एक ही हरकत से गुजरना, इस पुरे प्रकरण को बहुत दिलचस्प बना सकता है।  मुझे लगता है कि ज्यादातर महिलाएं जो किसी की पत्नी या प्रेमिका होती हैं, वे बहुत दयालु होती हैं। मेरे दोस्त की पत्नी (जिन्हें हम सभी महिलाओं का प्रतिनिधि मान सकते हैं) ने केवल उसे बताया कि मेरा दोस्त (जिसे पुरुष बिरादरी का प्रतिनिधि भी माना जा सकता है) थोड़ा उबाऊ हो रहा है। वास्तव में, मैं इस तथ्य को दोहराना चाहूंगा कि सभी पुरुष मेरी समझ और विश्वास के अनुसार पूरी तरह से उबाऊ हो जाते हैं, हालांकि मेरे पास इसे साबित करने के लिए कोई तंत्र नहीं है। 

जब ईसाई मिशनरी भारतीय उपमहाद्वीप में आए, तो लोगों को पता चला कि वे प्रेम करने की एक ही मुद्रा जानते हैं। इस पोजीशन में नीचे महिला और नाजुक महिला के ऊपर पुरुष होता था। भारत में उस मुद्रा को मिशनरी मुद्रा कहा जाता है।

यदि हम अपने अतीत को देखें, तो हम पाते हैं कि भारत कई आविष्कारों का देश है, विशेष रूप से वेदों की अवधि के दौरान। हमारे वेद जबरदस्त विचारों, नवाचारों और वैज्ञानिक सिद्धांतों का भंडार हैं। वेदों में दिए गए विभिन्न विचारों पर अभी भी शोध चल रहे हैं। भारत एक प्राचीन भूमि है। यह कई विज्ञानों का जन्मस्थान है। जिस प्रश्न का मैंने ऊपर उल्लेख किया है उसका समाधान हमारे शास्त्रों में भी है। वात्स्यायन ने लगभग पांच हजार साल पहले "कामसूत्र" नामक जबरदस्त महत्व की पुस्तक लिखी है। कामसूत्र का अर्थ है प्रेम करने का संकेत। इस तरह का काम वात्स्यायन जैसे गहरे ध्यान वाले व्यक्ति से हो सकता है। उन्होंने संभोग के लिए चौरासी से अधिक आसन बनाए हैं। महान वात्स्यायन ने इस तथ्य को पहचान लिया था कि वही प्रेम मुद्रा ऊब पैदा करती है। कुछ समय बाद उसमें मूर्खता का भाव आना लाजमी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई हमेशा एक ही काम कर रहा है। दोहराई जाने वाली बात। अगर किसी दूसरे ग्रह (जैसे मंगल) से कोई इस पूरे प्रकरण को देखता है तो उस व्यक्ति विशेष को यह महसूस होगा कि यह क्या बेवकूफी है जो ये जोड़े हर दिन कर रहे हैं। वात्स्यायन ने लोगों के प्रेम जीवन को थोड़ा दिलचस्प बनाने के लिए तरह-तरह के आसन ईजाद किए। मेरा मानना ​​है कि पूरी दुनिया में किसी ने भी कामसूत्र की क्षमता की किताब नहीं लिखी है। यह केवल अत्यधिक स्पष्टता के व्यक्ति, गहन ध्यान के व्यक्ति से ही आ सकता था।

इसके विपरीत आमतौर पर लोग किस तरह का प्रेम-प्रसंग करते हैं ? बार-बार वही हरकतें। अंत में, यह उबाऊ हो जाता है। इस प्रकार, मुझे याद है कि मैंने अपने मित्र को "कामसूत्र" पढ़ने का सुझाव दिया और उससे कुछ प्रेरणा प्राप्त करने को कहा ताकि वह अपनी पत्नी के लिए उबाऊ न हो। खासकर महिलाओं के लिए तो यह ज्यादा बोरिंग होता है। अपने दोस्तों के साथ अपने अनुभव और चर्चा से और इन मुद्दों पर कुछ लेख पढ़कर, मैं यही समझ सका हूँ कि आदमी दो या तीन मिनट में खत्म हो जाता है और महिला शुरू भी नहीं हुई होती है। दुनिया भर में, संस्कृतियों ने महिलाओं के दिमाग में यह लागू कर दिया है कि उन्हें विशेष रूप से संभोग के दौरान आनंद लेना या हिलना या चंचल होना भी नहीं चाहिए। अगर वे ऐसा करती हैं, तो इसे 'गंदा' माना जाता है। लोग कहेंगे कि ये काम वेश्याओं को करना है, महिलाओं को नहीं। महिलाओं को लगभग मृत अवस्था में लेटना पड़ता है और पुरुष को वह करने देना होता है जो वह करना चाहता है। इसमें नया कुछ भी नहीं है। इसे देखने में भी कोई नई बात नहीं है। 

अगर किसी की पत्नी कह रही है कि वह उबाऊ हो गया है तो उसे इसे व्यक्तिगत अपमान के रूप में नहीं लेना चाहिए। मैंने अपने दोस्त से कहा कि उसकी पत्नी उससे सचमुच सच्ची और ईमानदार बात कह रही है। मैंने उसे स्पष्ट रूप से याद रखने के लिए कहा कि उसने कितनी बार उसे कामोन्माद का आनंद दिया था या उसने केवल अपनी ऊर्जा को बाहर निकालने के लिए उसका उपयोग किया है। अगर ऐसा है (और जाहिर तौर पर यह मामला था अन्यथा वह उसे उबाऊ क्यों कहती) उसने अपनी पत्नी को एक वस्तु के स्तर तक ला कर रख दिया है।  

इन सबके बावजूद, उसे विरोध करने या यह बताने की भी अनुमति नहीं है कि वह सहज नहीं है। दुनिया भर में प्रचलित संस्कृति ने उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं दी है। उसे स्वीकार करने की शर्त रखी गई है। लेकिन यह स्वीकृति उसके लिए खुशी की बात नहीं है। बोरिंग होने का एक और संभावित कारण यह भी है कि जिस बिस्तर पर वे हर दिन लड़ते है, उसी बिस्तर पर प्यार किया करते है।  अधिकांश लोगों के जीवन में, प्रेम केवल एक समझौता है। यदि कोई सौन्दर्य बोध का व्यक्ति है, तो उसका प्रेम कक्ष एक पवित्र स्थान होना चाहिए। इस प्रेम कक्ष में जीवन का जन्म होता है। लोगों को अपने प्रेम कक्ष में गहरे सम्मान के साथ प्रवेश करना चाहिए। प्यार अचानक नहीं होना चाहिए। प्रेम की प्रस्तावना सुंदर संगीत की, साथ-साथ नाचने की, साथ-साथ ध्यान करने की होनी चाहिए। यह एक तरह का ध्यान है। प्रेम मन की बात नहीं होनी चाहिए। लगभग सभी लोग जो प्यार करने वाले हैं, वे लगातार सोच रहे हैं कि कैसे प्यार किया जाए और फिर सो जाए। यह अनायास ही बाहर आ जाना चाहिए। यदि पवित्र वातावरण में प्रेम स्वतः हो जाए तो उसका एक अलग गुण होगा। 

पुरुषों को, यह समझना चाहिए कि महिला कई बार चरमोत्कर्ष में सक्षम है। यह विशेष रूप से इसलिए है क्योंकि वह कोई ऊर्जा नहीं खोती है। मनुष्य केवल एक ही चरमोत्कर्ष में सक्षम है और वह ऊर्जा खो देता है। जैसे-जैसे वह उम्र में बड़ा होता जाता है, यह और अधिक कठिन होता जाता है। इस अंतर को समझना होगा। महिला ग्रहणशील होती है।  आदमी की कामुकता लोकल एनेस्थीसिया की तरह लोकल होती है। एक महिला का शरीर हर तरफ कामोत्तेजक है। जब तक उसके शरीर की प्रत्येक कोशिका इसमें शामिल न हो, तब तक उसे एक कामोन्माद विस्फोट होने की उम्मीद नहीं है। पुरुषों और महिलाओं के बीच इस जैविक अंतर को समझने की जरूरत है। 

एक शोध रिपोर्ट के अनुसार, यह बताया गया है कि दुनिया भर में लगभग 9५% महिलाओं को कामोन्माद का आनंद नहीं मिलता है।  भले ही यह थोड़ा ज्यादा हो और तर्क के लिए मान लें कि यह आंकड़ा 9५% नहीं बल्कि केवल 90% है तो यह भी वास्तव में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। 

जरूरत इस बात की है कि उसके साथ एक महिला की तरह व्यवहार न किया जाए। उसे एक नारी की तरह देखा जाना चाहिए।  सवाल यह उठता है कि महिला और नारी में अंतर क्या है।  महिला एक सामाजिक रचना है, नारी एक जैविक रचना है और अस्तित्व द्वारा बनाई गई है, अर्थात ईश्वर द्वारा बनाई गई है। 

मैंने अपने दोस्त से कहा कि इस सलाह का ध्यान रखें ताकि उसकी पत्नी उसे उबाऊ न कहे और वह अपनी पत्नी के लिए वास्तव में दिलचस्प और रसदार हो। मैंने कहा कि उसकी पत्नी पीड़ित होने का दावा कर रही है। लेकिन ध्यान से देखा जाए तो हर इंसान बेवकूफी भरी विचारधाराओं का शिकार होता है। इन मूर्खतापूर्ण विचारधाराओं ने हमारे बीच अजीब अपराधबोध पैदा कर दिया है। ये बेवकूफी भरी विचारधाराएं एक महिला (और कई मामलों में पुरुष को भी) को प्यार करते समय चंचल होने की अनुमति नहीं देती हैं। 

मेरे गाँव में ऐसे बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि प्यार करना एक तरह का पाप है।  जो लोग प्यार कर रहे है उनको नरक ही मिलेगा।  यह मज़ाकीय है। प्रेम करना एक ध्यानपूर्ण प्रक्रिया है। पुरुषों और महिलाओं की पूरी उपस्थिति होनी चाहिए, एक दूसरे पर अपना प्यार, सुंदरता और कृपा बरसाए। तब वे खुद को शिकार महसूस नहीं करेंगे, नहीं तो वे नकली विचारधाराओं के शिकार होते रहेंगे । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी (पुरुष और महिला दोनों) दोषी और उदास महसूस नहीं करेगा। मेरा दृढ़ विश्वास है कि प्यार रचनात्मकता का एक रूप है। कोई भी रचनात्मक व्यक्ति उदास और दोषी महसूस नहीं करता है। अपने रचनात्मक कार्यों से ब्रह्मांड में उनकी भागीदारी उन्हें जबरदस्त रूप से पूर्ण बनाती है और उन्हें गरिमा प्रदान करती है। 

मुझे लगता है, रचनात्मक होना हर आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन सवाल यह है कि वास्तव में कितने लोग इसका दावा करते हैं। मेरा मानना ​​है कि किसी की रचनात्मकता का दावा करने में कोई कठिनाई नहीं है। रचनात्मक क्षेत्रों जैसे पेंटिंग, बागवानी, लेखन, संगीत सीखना और नृत्य आदि में ऊर्जा का उपयोग करना इतना आसान है। हर सुबह जब वह अपने दांतों की सफाई कर रहा होता है, तो वह अपनी रचनात्मकता को सीख और परख सकता है। कितने तरीकों से दांतों को कितने समय में साफ किया जा सकता है। व्यक्ति को कुछ भी सीखना चाहिए जो उसकी विनाशकारी ऊर्जा को रचनात्मक ऊर्जा में बदल दे। यह नकारात्मकता को सकारात्मकता में बदल देगा।

Friday, March 11, 2022

 जड़ों की खोज में: पालीवाल का इतिहास

पालीवाल भारत में एक उपनाम है जिसे कई परिवारों ने अपने मूल स्थान से अपनाया है, पाली। पाली कई वर्षों तक भारत में राजस्थान के वर्तमान राज्य में स्थित व्यापार और वाणिज्य का केंद्र था। हालाँकि ये लोग कई धर्मों का पालन करते थे और विभिन्न हिंदू जातियों के थे, उनमें से अधिकांश ब्राह्मण और राजपूत थे। उनमें से बहुत से जैन समुदाय के भी हैं, जो खुद को दिगंबर पालीवाल जैन कहते हैं, जिनके उपनाम लोदया, खेड़ीकर आदि हैं।

व्युत्पत्ति और उपयोग

पालीवाल उपनाम की उत्पत्ति पाली वाले (पाली का एक व्यक्ति) है। पाली के अधिकांश निवासियों को पालीवाल कहा जाता था। अर्थात पालीवाल एक भौगोलिक पहचान है जिसे पाली से सम्बंधित लोग अपनी पहचान के साथ जोड़ते है।  वे राजपूत भी है, ब्राह्मण भी है एवं किसी अन्य धर्म से भी हैं। 

मूल

उत्पत्ति के प्रश्न का कोई सटीक उत्तर नहीं है।  इस विषय पर दो प्रमुख विचार हैं। एक दृश्य कहता है कि पालीवाल पाली से आते हैं जो भारत के थार रेगिस्तान में एक छोटा सा राज्य था।  वहां के निवासियों ने उस स्थान को अपने परिश्रम से समृद्ध बनाया।   लगभग 13 वीं शताब्दी में, उन्होंने पाली के राजा द्वारा अत्याचारी व्यवहार के कारण उससे नाखुश होकर, वे तत्कालीन राज्य जैसलमेर के कुलधरा क्षेत्र में चले गए। उनके मूल की पहचान पालीवाल नाम से की गई थी। ऐसा कहा जाता है कि कुलधरा के आसपास के 84 गांवों में प्रत्येक नए पालीवाल परिवार का स्वागत गांव के हर दूसरे परिवार से एक ईंट और एक सोने के सिक्के के साथ किया गया था। ईंट का उपयोग घर के निर्माण में और सोने का उपयोग व्यवसाय या खेती शुरू करने के लिए किया जाता था। जैसे ही समुदाय की समृद्धि का पुनर्निर्माण किया गया, यह मुगल आक्रमणों का लक्ष्य बन गया। जाहिर है, १६ वीं शताब्दी में, एक आक्रमण हुवा तथा कुओं को जहर से भर दिवा गया, जानवर मारे गए तथा जानवरों के शवों से कुंओ को भर दिया गया, और जिसके कारण यह समुदाय फिर से कुलधरा क्षेत्र से पलायन कर गया था।

उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि 'पालीवाल' एक भौगोलिक पहचान है। इसमें ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य आदि कई जातियां शामिल हैं। पालीवाल के राजपूत समुदाय पूर्वी और पश्चिमी यूपी में चले गए। कुछ परिवार उत्तर बिहार चले गए। 

पालीवाल चंद्रवंशी हैं और ऐसा माना जाता है राजा भरत और पांडवों के पूर्वज होने के कारण कुछ राजपूतों ने खुद को भारतवंशी बताया। पालीवाल राजपूतों का गोत्र व्याग्रपथ है। "पालीवाल" शब्द अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह से बोला जाता है। इसका उच्चारण अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से और अलग-अलग लोगों द्वारा उनकी समझ के आधार पर किया जाता है जैसे "पलवल"; "पालीवार" और "परिवाल" आदि। पालीवाल राजपूत अपने समय के महान योद्धा रहें हैं।

पालीवाल के इतिहास के बारे में उदयपुर में मेवाड़ के शाही पुस्तकालय (निजी पुस्तकालय और उदयपुर के शाही परिवार से संबंधित) में कुछ पवित्र ग्रंथ उपलब्ध हैं। पालीवाल के इतिहास के बारे में इतिहासकारों का एक और मत है। उनके अनुसार पालीवाल राजपूत मूल रूप से सोलंकी राजपूत हैं। कुछ का कहना है कि वे पांडवों के वंशज हैं और वे "तोमर" राजपूत हैं। पालीवाल राजपूतों की कुलदेवी राजस्थान के जनोर, पाली में क्षेमकारी (खिमजी) माता हैं।

जैसा कि सोलंकी राजपूत वंश 1100 ईसा पूर्व के बाद गायब हो गया और गुजरात के वढेलों ने इस वंश को आगे बढ़ाया।  इन राजपूतों को राजा पाल (सोलंकी राजवंश के अंतिम राजा) के नाम से भी पहचान मिली तथा उनके नाम पर पालीवाल लिखना शुरू कर दिया।  राजा पाल के पर दादा राजा व्याग्रदेव थे जिसके कारण उन्होंने व्याघ्र गोत्र को अपने वंश के रूप में लिखना शुरू कर दिया। कुछ लोगों का ये भी मानना है की ऋषि वैयाकरण से दीक्षित होने के कारण 'वैयाकरण' गोत्र मिला जो की कालांतर में 'व्याग्र' और 'व्याग्रपथ' नाम दिया गया।  

पूर्वी उत्तर प्रदेश में पालीवाल 

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ तथा गोरखपुर जिले में पालीवाल राजपूतों की मौजूदगी है। आजमगढ़ के दशाओं में काफी संख्या में पालीवाल राजपूत हैं।  गोरखपुर के हुण्डरा, खलंगा, गगहा जैसे कुछ गांवों में इस समुदाय की भारी उपस्थिति है। हालाँकि गगहां क्षेत्र के पालीवाल राजपूतों का गोत्र अलग है।  वे लोग 'खोन्हन' गोत्र बताते हैं तथा अपने नाम के साथ अपना उपनाम 'ठकुराई' लिखते थे।  हुण्डरा और खलंगा के पालीवाल राजपूतों के बारे में ऐसा कहा जाता है कि जब ये लोग राजस्थान से चले और किसी अन्य सुरक्षित स्थान की तलाश में वे बढयापार रियासत में आए। वह १८वी शताब्दी के शुरुवात का समय रहा होगा।  बढयापार गोरखपुर के वर्तमान जिले में एक छोटी से रियासत थी।  बढयापार के तत्कालीन राजा का पिंडारियों के साथ बहुत बुरा समय चल रहा था। पिंडारी मूल रूप से एक जनजाति थी और उनका मुख्य व्यवसाय गांवों और कस्बों को लूटना था। वे बेरहम लोग थे और गांवों और कस्बों को लूट कर तबाह कर देते थे। इन लोगों (पालीवाल) ने सुना है कि राजा संकट में है और इसलिए उन्होंने राजा की मदद की और अगली बार जब पिंडारियों ने राज्य पर हमला किया, तो उन्होंने उन्हें हरा दिया और उन्हें बेरहमी से नष्ट कर दिया ताकि वे फिर कभी इस राज्य की ओर देखने की हिम्मत न करें। 

जब बढयापार के राजा को पता चला कि ये लोग प्रवासी हैं तो उन्होंने उन्हें रहने के लिए तीन गाँव दिए और तब से पालीवाल ने इन तीन गाँवों में अपनी जड़ें जमा लीं। बाद में, एक गाँव को राजा ने वापस ले लिया। पालीवालों ने अपने परिश्रम और पराक्रम से इन गांवों को रहने योग्य जगह में बदल दिया है जो एक समय में जंगल थे।

 ढाका डायरी

लगभग दो साल के अंतराल के बाद एक बार फिर मैं बांग्लादेश की ओर जा रहा था। पिछली बार वर्ष 2015 में, मैं वहां गया था और एक बहुत ही यादगार अनुभव था। लेकिन इस बार, यह उसी रास्ते से नहीं था। पिछली बार मैंने असम के करीमगंज से बांग्लादेश में प्रवेश किया था लेकिन अब मैं इलाहाबाद में तैनात हूं इसलिए मुझे कोलकाता से बांग्लादेश में प्रवेश करना पड़ा। मैं दो दिन पहले कोलकाता पहुंचा और वीजा के लिए बांग्लादेश उप उच्चायोग कार्यालय गया। शुरू में मैंने सोचा था कि वीजा उसी दिन जारी किया जाएगा लेकिन वहां पहुंचने के बाद मैंने पाया कि यह उसी दिन जारी नहीं किया जा सकता है। वीजा काउंटर पर एक महिला अपने पारंपरिक मुस्लिम परिधान में बैठी थी। महिला ने मुझसे पूछा, "आप कोलकाता से वीजा के लिए आवेदन क्यों कर रहे हैं, गुवाहाटी से क्यों नहीं? हमारा गुवाहाटी में भी ऑफिस है।" मैंने कहा, "मैं इस समय इलाहाबाद में तैनात हूं, इसलिए कोलकाता मेरे लिए ज्यादा सुविधाजनक है"। इस पर वह नाराज हो जाती हैं और कहती हैं, "आपको इसे गुवाहाटी कार्यालय से जारी करवाना चाहिए"। मैंने फिर वही बात दोहराई। फिर उसने पूछा, "गुवाहाटी से इलाहाबाद कितनी दूर है?" मैंने विनम्रता से कहा, "लगभग 1700 किमी"। उसने कहा, "ऐसा क्या ?" ऐसा लगता था कि वह भारत की लंबाई और चौड़ाई से परिचित नहीं थी और उसके बाद, उसने चुपचाप वीज़ा आवेदन पत्र रखा और मुझे अगले दिन आने के लिए कहा।

मैं कोलकाता के एक होटल में आया और अगले दिन का टिकट कैंसिल कर दिया। मैंने अंतिम वीजा मिलने के बाद ही ढाका के लिए टिकट बुक करने का फैसला किया। मैंने पूरा दिन होटल में बैठकर बिताया और अगले दिन मैं शाम 5 बजे का इंतजार कर रहा था क्योंकि मुझे शाम को 5 बजे वीजा मिलने की उम्मीद थी। लेकिन अचानक मुझे एक अनजान नंबर से कॉल आया। मैंने फोन उठाया। यह बांग्लादेश उच्चायोग से था। मुझे बताया गया कि ढाका में सर्वर में कुछ समस्या चल रही है और इसलिए, सोमवार से पहले वीजा जारी नहीं किया जा सकता था । मैंने उस व्यक्ति से अनुरोध कर मुझे किसी तरह वीजा जारी करने के लिए कहा।  मैंने उसको बताया कि अगर वीज़ा उसी दिन नहीं दिया गया तो मैं जिस काम के लिए जा रहा था वह पूर्ण नहीं हो पायेगा।  उन्होंने कहा कि चूंकि पूरी प्रक्रिया कम्प्यूटरीकृत है इसलिए उनके हाथ में कुछ भी नहीं है और उन्हें हर चीज के लिए आईसीटी पर निर्भर रहना पड़ता है।  मैं एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में एक शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए ढाका जा रहा था और एक पेपर आईसीटी पर था। उस पत्र में, मैंने जीवन के सभी संभावित पहलुओं में आईसीटी को अपनाने की वकालत की थी और अब आईसीटी अपना क्रूर चेहरा दिखा रहा था जिसका मैंने अपने पेपर में उल्लेख नहीं किया था। ऐसा लगता है कि आईसीटी मुझ पर हंस रही थी और कह रही थी "दुनिया है मेरे पीछे, लेकिन मैं तेरे पीछे" . वह दिन शुक्रवार था। मैं हैरान भी था और चिंतित भी। मैं जिस सम्मेलन के लिए जा रहा था वह सोमवार को ही निर्धारित था। इसका मतलब था कि अगर सोमवार को वीजा जारी किया जाता तो वीजा का कोई फायदा नहीं होता । मैंने ढाका में अपने मित्र सह शोधार्थी प्रो. सोगीर हुसैन को फोन किया और उन्हें स्थिति से अवगत कराया। वह भी बहुत चिंतित थे। आखिर हम एक लंबे अंतराल के बाद मिलने वाले थे तो हम दोनों एक दूसरे को देखने के लिए उत्साहित थे लेकिन एकाएक ऐसा लगा कि अगले कुछ दिनों की हमारी सारी योजनाएँ धराशायी हो जाएँगी।

कुछ समय बाद, उन्होंने (प्रो. सोगीर हुसैन) मुझे एक नाम और संदर्भ दिया और मुझे बांग्लादेश उच्चायोग में उस व्यक्ति से मिलने के लिए कहा।  मैं फौरन बंगलादेश उच्चायोग के कार्यालय की ओर दौड़ पड़ा। मैंने उस व्यक्ति के साथ अपॉइंटमेंट लिया जिसका नाम मेरे मित्र ने बताया था। वह उच्चायोग के काउंसलर जनरल थे। मैं वेटिंग रूम में इंतजार कर रहा था। वेटिंग रूम में कुछ और लोग भी थे जो किसी से मिलने का इंतजार कर रहे थे। मैं उनमें से कुछ के साथ बातें कर रहा था। कमरे में एक दिलचस्प बात लोगों का परिचय था। आम तौर पर हम अपने नाम से अपना परिचय देते थे, फिर अपने पदनाम, अपनी जाति, धर्म आदि के साथ। प्रतीक्षालय में, हर कोई अपना परिचय भारतीय या बांग्लादेशी के रूप में दे रहा था और कमरे में मौजूद अधिकांश लोगों के लिए यही एकमात्र परिचय था।

सम्मेलन के छूटने के विचार से ज्यादा मैं उस शर्मिंदगी के बारे में सोच रहा था जिससे कोलकाता से वापस जाने के बाद मुझे गुजरना पड़ेगा। मैं सोच रहा था कि मैं अपने दोस्तों और सहकर्मियों का सामना कैसे करूंगा कि बांग्लादेश ने मेरा वीजा खारिज कर दिया है। यदि संयुक्त राज्य अमेरिका ने वीजा जारी करने से इनकार कर दिया होता तो इस बात की काफी संभावना है कि कोई भारत का प्रधान मंत्री बन सकता है लेकिन बांग्लादेश…?

हालाँकि, भाग्य ने मेरा साथ दिया और मुझे अपने मोबाइल पर एक फोन आया कि सर्वर ठीक हो गया है और मेरा वीज़ा तैयार है। मुझे काउंटर से इसे लेने के लिए कहा गया था। मैं काउंटर की ओर दौड़ा और कुछ प्रतीक्षा के बाद, मुझे उचित वीज़ा के साथ अपना पासपोर्ट मिल गया।

मैं वापस होटल आ गया। मैंने बस से ढाका जाने का फैसला किया था। इसका कारण यह था कि मैं बांग्लादेश को विस्तार से देखना चाहता था। मेरा मानना ​​है कि हवाई अड्डों पर माहौल एक जैसा होता है चाहे वो भारत हो या बांग्लादेश, लेकिन अगर मुझे असली बांग्लादेश देखना है तो मुझे बस से यात्रा करनी चाहिए । मेरा विश्वास सत्य था और मैंने पाया कि एक आम बांग्लादेशी नागरिक एक आम भारतीय नागरिक के समान होता है, बस में यात्रा करता है यद्यपि अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं है लेकिन अपने जीवन का पूरा आनंद लेता है। वह गाता है, नाचता है, चुटकुले सुनता है, सुनाता है।  

मैंने कोलकाता के पास बेनापोल में सीमा पार की और आव्रजन संबंधी औपचारिकताएं पूरी कीं। सीमा के दूसरी तरफ बांग्लादेश था। पूरी तरह से एक जैसे, लेकिन एक अलग देश, एक अलग मुद्रा, अलग नाम और अलग मोबाइल नेटवर्क और फिर से मुझे एक हिंदी फिल्म सरफरोस का डायलॉग याद आ गया:

“सियासत के दलालो ने ज़मीन पे लकीर खिच के मुल्क के दो टुकड़े कर दिए और दोनो तरफ के ज़हीलो को ये फैसला करने का अधिकार मिल गया की कौन सा गधा तख्त पे बैठेगा”।

मैं हमेशा से बांग्लादेश की सुंदरता से मंत्रमुग्ध रहा हूं। सड़कों के दोनों ओर हरे-भरे धान के खेत थे। हालांकि सड़कों की स्थिति अपेक्षाकृत खराब थी। इस बार मुझे भी एक समस्या का सामना करना पड़ा जिसका सामना बांग्लादेश खूब कर रहा है वह है ट्रैफिक जाम। बाद में मुझे सम्मेलन के दौरान पता चला कि बांग्लादेश खासकर ढाका अपने ट्रैफिक जाम के लिए विश्व प्रसिद्ध है। हमारी बस भी उसी का शिकार हुई। दिन भर की यात्रा के बाद बस पद्मा नदी के तट पर पहुँची। वहां एक और बड़ा अनुभव इंतजार कर रहा था। मैंने पाया कि बस को एक बड़े फेरी पर भेज दिया गया था। फेरी इतनी बड़ी थी कि उसमें लगभग दस बड़ी बसें थीं। नौका ने लगभग 45 मिनट तक यात्रा की और उसके बाद, बस नदी के दूसरी ओर थी।  

लगभग दो घंटे के बाद, बस ने ढाका शहर में प्रवेश किया और अंत में ढाका शहर के महान ट्रैफिक जाम का सामना करने का समय आ गया। लगभग 15 किलोमीटर की दूरी दो घंटे में तय की गई और आखिरकार, समय आ गया कि मेरे एक मित्र श्री सलाउद्दीन (जो यात्रा के दौरान मेरे दोस्त बने) ने मुझे सूचित किया कि गंतव्य आ गया है।श्री सलाउद्दीन बस में मेरे सह-यात्री थे। उन्हें मेरे साथ बस में सीट मिल गई। वह बहुत मिलनसार और सहयोगी थे। बस में उन्होंने मुझसे हिंदी में पूछा कि क्या मैं ढाका जा रहा हूँ और मैंने कहा "हाँ"। मैंने उससे उनकी राष्ट्रीयता के बारे में पूछा और उन्होंने बताया कि वह एक बांग्लादेशी है और फिर मैंने हैरानी से उनसे पूछा कि वह इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल सकते है। उन्होंने कहा कि उनकी दादी भारत में बिहार से हैं और वह अपने घर पर हिंदी में बात करते थे। यह मेरे लिए एक अनोखी सीख थी कि बांग्लादेश में भी लोग अपने घरों में हिंदी में बात करते हैं। पूरी यात्रा के दौरान श्री सलाउद्दीन ने मेरा हर संभव ख्याल रखा । 

बस से उतरने के बाद मुझे ढाका क्लब ले जाया गया। यह एक सुंदर आवासीय होटल था और मुझे बताया गया कि ढाका क्लब में केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को ही ठहराया जाता है। मुझे अपने आप पर गर्व महसूस हुआ और विशेषाधिकार प्राप्त श्रेणी में आने पर मुझे खुशी हुई। काउंटर पर बैठा व्यक्ति हिंदी में बात कर रहा था। 

अगले दिन, मेरा कार्यक्रम जगन्नाथ विश्वविद्यालय, ढाका में व्याख्यान देने का था। मैंने सुबह 8 बजे से पहले अपना नाश्ता पूरा कर लिया। मोहम्मद सोगीर हुसैन सुबह 8 बजे आए और मुझे जगन्नाथ विश्वविद्यालय ले गए जो ढाका क्लब से लगभग 16 किलोमीटर दूर स्थित है। रास्ते में उन्होंने मुझे ढाका का रेस कोर्स दिखाया जहाँ पाकिस्तानी सेना का ऐतिहासिक आत्मसमर्पण हुआ था जिसे दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण माना जाता है। 16 दिसंबर 1971 को लगभग 9३,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था । मेरा ह्रदय एक भारतीय होने के आनंद और गौरव से भर गया। रास्ते में बांग्लादेश का सुप्रीम कोर्ट, ढाका डिवीजन का हाई कोर्ट था। बांग्लादेश में भारत जैसे राज्यों की अवधारणा नहीं है बल्कि उनके पास डिवीजन हैं और पूरे देश को आठ डिवीजनों में बांटा गया है और प्रत्येक डिवीजन में एक उच्च न्यायालय है।

मोहम्मद सोगीर हुसैन जगन्नाथ विश्वविद्यालय, ढाका में प्रोफेसर हैं और मुझे उनके पीएचडी पर्यवेक्षक होने का भी सौभाग्य मिला है। वह बहुत ही रचनात्मक व्यक्ति हैं और हर कोई उनकी संगति से प्यार करता है। उनके पास एक बहुत ही जिज्ञासु दिमाग है जो एक अच्छा शोधकर्ता बनने के लिए आवश्यक है और मैं हमेशा एक ही चीज को एक अलग नजरिए से देखने की उनकी क्षमता से प्रभावित रहा हूं। जगन्नाथ विश्वविद्यालय में, मैंने एमबीए, बीबीए और एमबीए (शाम) कार्यक्रमों के छात्रों के साथ बातचीत की। विदेशी प्रोफेसर के साथ बातचीत करने के लिए छात्र बहुत उत्साहित और उत्साहित थे। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने हिंदी में कक्षाएं लगाने के लिए कहा। उनमें से एक ने कहा कि उन्होंने अंग्रेजी और बंगाली में प्रोफेसरों की कक्षा में भाग लिया था और वे हिंदी में व्याख्यान सुनने के इच्छुक हैं। मैंने पूछा कि वे हिंदी कैसे समझते हैं। उन्होंने कहा कि यह हिंदी टीवी चैनलों और हिंदी सिनेमा के कारण है। वैसे भी जगन्नाथ विश्वविद्यालय का दौरा बहुत सफल रहा। मैं कुलपति से भी मिला और मुझे माननीय कुलपति की गतिशीलता की सराहना करनी चाहिए। 

मैं वापस ढाका क्लब आया, जो ढाका में मेरा निवास था और मैंने रात का भोजन किया। आधी रात को मुझे पेट में दर्द हुआ और मैं पूरी रात सो नहीं पाया। सुबह मैं रिसेप्शन काउंटर पर गया और अपनी समस्या बताई। कुछ ही मिनटों में एक व्यक्ति दो दवाएं लेकर आया। मैंने दोनों दवाएं खा लीं। मैंने पहले ही मो. सोगीर को फोन किया और उन्होंने कहा कि वह मेरे लिए कुछ दवाएं लाएंगे। जब मैं अपने कमरे से बाहर आया और रिसेप्शन पर कमरे की चाबी जमा की, तो मैंने पाया कि एक युवा और होशियार लड़का मेरा इंतजार कर रहा था। उसने मुझे बताया कि वह मुझे लेने आया है। एक और अमेरिकी महिला प्रोफेसर थीं, जिन्हें मेरे साथ जाना था। कुछ मिनटों के इंतजार के बाद, वह बाहर आई और हम ढाका विश्वविद्यालय की ओर चल पड़े। जल्द ही हम व्यावसायिक अध्ययन संकाय, ढाका विश्वविद्यालय के परिसर में थे। यह नौ मंजिला इमारत थी जो हर तरह की सुख-सुविधाओं से भरपूर थी । सच कहूं तो, मैं ढाका विश्वविद्यालय के बुनियादी ढांचे से हैरान होने के साथ-साथ मंत्रमुग्ध भी था। ढाका विश्वविद्यालय के छात्र युवा लड़कों और लड़कियों के साथ-साथ दुनिया भर के शिक्षाविदों के साथ पूरा परिसर रोमांचित था। मैं हमेशा बंगालियों खासकर लड़कियों के ड्रेसिंग सेंस की तारीफ करता हूं। बाजार में किसी खास समय पर चाहे जो भी फैशन चल रहा हो, उनके पास हर मौके के लिए हमेशा एक खास साड़ी होती है। तो कैंपस भी रंग-बिरंगी साड़ी पहने खूबसूरत और खुशमिजाज लड़कियों से भरा हुआ था जो पूरे माहौल को सजीव बनाये हुए थी और एक नयी ऊर्जा का संचार कर रही थी। 

ढाका विश्वविद्यालय का एक बहुत समृद्ध इतिहास है और इसे 'पूर्व के ऑक्सफोर्ड' के रूप में जाना जाता है। इलाहाबाद को भी 'पूर्व का ऑक्सफोर्ड' कहा जाता है। इस प्रकार, मैं एक ऑक्सफोर्ड से दूसरे ऑक्सफोर्ड में था। हालांकि, जब इलाहाबाद या ढाका को 'पूर्व का ऑक्सफोर्ड' कहा जाता है, तो मैं इसकी सराहना नहीं करता। मेरे लिए यह एक प्रकार से गुलामी का प्रतीक लगता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मेरा मानना ​​है कि हमारी सभ्यता, संस्कृति और नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय ऑक्सफोर्ड की तुलना में शिक्षा के पुराने केंद्र हैं और यह बहुत हतोत्साहित करने वाला है जब लोग इलाहाबाद को पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहते हैं। बल्कि ऑक्सफोर्ड को 'पश्चिम का इलाहाबाद' कहना चाहिए था। 

सम्मेलन अपने सम्मेलन कक्ष में शुरू हुआ। इस बीच, मेरे पास मोहम्मद सोगीर द्वारा लाई गई दवाओं की एक और खुराक थी। अगले दिन मेरा प्रेजेंटेशन था। दोपहर के भोजन के बाद, मोहम्मद सोगीर मुझे बाजार ले गए और मेरे और मेरे परिवार के लिए कुछ कपड़े खरीदे। मैं उन्हें रोक रहा था लेकिन वह नहीं रुके।  चूँकि मैं पूरी रात सो नहीं पाया था इसलिए मैं वापस होटल के कमरे में आकर सो गया। शाम को कुलपतियों के आवास पर रात्रि भोज हुआ। हमने वहां जाकर खाना खाया। अगले दिन, मेरी तीन प्रस्तुतियाँ थीं जो अच्छी रहीं। शाम को कांफ्रेंस डिनर और सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। यह होटल ला-मेरिडियन, ढाका के एक पांच सितारा होटल में था।

ढाका की पूरी याद बहुत ताज़ा है। ढाका के लोग बहुत सहयोगी और मददगार हैं। ढाका बहुत भीड़-भाड़ वाला शहर है और इसलिए ढाका में ट्रैफिक जाम एक बड़ी समस्या है। हालाँकि, पिछले दो-तीन दशकों में बांग्लादेश ने जिस तरह से खुद को बदला है, वह उल्लेखनीय है। एक बार बांग्लादेश और पाकिस्तान एक ही देश थे, लेकिन पाकिस्तान से मुक्ति के बाद, बांग्लादेश ने काफी अच्छी प्रगति की है और यह लगभग सभी महत्वपूर्ण मानकों के मामले में पाकिस्तान से काफी आगे है, जो उपलब्ध आंकड़ों से स्पष्ट है। बांग्लादेश ने मोबाइल फोन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है और इसके माध्यम से वे मोबाइल बैंकिंग के क्षेत्र में भी प्रवेश कर रहे हैं। वर्तमान में, बांग्लादेश इस क्षेत्र में दुनिया के इस हिस्से में अग्रणी है और औपचारिक बैंकिंग चैनलों से वंचित लोगों के लिए वित्तीय समावेशन लाने में एक बड़ी प्रगति कर रहा है। हिंदी और हिंदी सिनेमा दोनों बांग्लादेश में बहुत लोकप्रिय हैं और लोग हिंदी बोल सकते हैं। मैंने पाया कि बांग्लादेश के छात्र भारत में होने वाली घटनाओं से बहुत परिचित हैं। मैंने पाया कि ढाका विश्वविद्यालय में एक महिला अपने परिवार के सदस्यों से भोजपुरी में बात कर रही थी। मैं उनकी भोजपुरी भाषा के स्रोत के बारे में पूछने के लिए खुद का विरोध नहीं कर सका और उन्होंने बताया कि उनके दादा-दादी भारत में बिहार से थे। भोजपुरी को भारत की एक भाषा के रूप में मान्यता देने की वकालत कर रहे लोगों के लिए यह एक और जानकारी के साथ-साथ खबर भी थी। वास्तव में, भोजपुरी एकमात्र भारतीय वैश्विक भाषा है क्योंकि यह दुनिया के 11 से अधिक देशों में बोली जाती है। 

बांग्लादेश ने अपने सभी नागरिकों को पहचान जारी करने की अपनी परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है जो भारत में आधार के समान है। यह यात्रा मेरे लिए बहुत अजीब थी क्योंकि मैंने परिवहन के सभी साधनों जैसे रेलवे, सड़क मार्ग, जलमार्ग, वायुमार्ग से यात्रा की थी।  मैं समझता हूं कि इस तरह की यात्राओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिससे दोनों देशों के बीच संबंध मजबूत हों। दोनों देश एक समृद्ध इतिहास साझा करते हैं, दोनों देशों का डीएनए एक ही है, दोनों देशों ने एक साथ अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ी है और अगर उचित तरीके से कदम उठाए गए तो यह दोनों राष्ट्रों के लिए बेहतर स्थिति का निर्माण हो सकता है। 

Wednesday, March 9, 2022

 ब्रह्मांड का षड्यंत्र-IV

"आपने अब तक कितने पीएचडी का मार्गदर्शन किया है?" भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद में प्रोफेसरों के चयन के लिए समिति के अध्यक्ष ने मुझसे पूछा। 

"सात। तीन एकमात्र और प्रधान पर्यवेक्षक के रूप में और चार सह-पर्यवेक्षक के रूप में", मैंने प्रश्न का उत्तर दिया।

"सभी असम विश्वविद्यालय से?" समिति की एक महिला सदस्य ने पूछा।

"जी महोदया। यह सब असम विश्वविद्यालय में मेरे प्रवास के दौरान हुआ था”, मैंने उसके प्रश्न का उत्तर दिया।

प्रोफेसर के चयन के लिए एक साक्षात्कार चल रहा था और आवश्यक योग्यताओं में से एक योग्यता पर्यवेक्षक के रूप में कम से कम दो पीएचडी का सफल मार्गदर्शन था। मैंने अपने करियर में कुल सात पीएचडी, तीन एकमात्र पर्यवेक्षक और चार सह-पर्यवेक्षक के रूप में मार्गदर्शन किया था।  

मैं मई 2013 में भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में शामिल हुआ। उस समय, असम विश्वविद्यालय में मेरे अधीन 4 पीएचडी शोधार्थी काम कर रहे थे। वे मेरे नाम से असूचीबद्ध होने वाले थे, लेकिन इस बीच, आईआईआईटीए में कुछ विवाद उत्पन्न हो गए और मैं असम विश्वविद्यालय में वापस आ गया और उन्हें मेरे अधीन पीएचडी करते रहे । इसी दौरान मेरे मार्गदर्शन में पीएचडी करने के लिए मुझे एक अंतरराष्ट्रीय शोधार्थी भी दिया गया था। मैं लगभग तीन वर्षों तक असम विश्वविद्यालय में रहा और इन वर्षों के दौरान मैंने 7 पीएचडी का मार्गदर्शन किया। 

प्रोफेसरों के चयन के लिए एक अन्य मानदंड एससीआई या एबीडीसी सूचीबद्ध पत्रिकाओं में कम से कम तीन शोध पत्र प्रकाशित करना था और यह कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी पत्रिकाओं में मेरे अधिकांश प्रकाशन असम विश्वविद्यालय के साथ मेरे जुड़ाव का परिणाम हैं।

असम विश्वविद्यालय में पेशेवर जीवन बहुत कठिन था क्योंकि मैंने अपनी दूसरी पारी के तीन साल फाइलों और अन्य आधिकारिक मामलों के पीछे भागते हुए बिताए। तत्कालीन डीन के साथ मेरे संबंध भी सबसे निचले स्तर पर थे। अपने बेटे की शादी की रिसेप्शन पार्टी में उन्होंने यूनिवर्सिटी में सभी को  बुलाया था और मेरे अलावा एक चपरासी भी नहीं छूटा।  मैं इस घटना का जिक्र सिर्फ पाठकों को यह समझाने के लिए कर रहा हूं कि उस दौरान हमारे बीच किस तरह के बुरे संबंध थे। मूल रूप से, कुछ लोगों द्वारा मेरे बारे में भ्रांतिया फैलाई गयी और विश्वास की कमी को बढ़ावा दिया गया था और इस कारण से, हमारे संबंध कभी भी सौहार्दपूर्ण नहीं थे। मुझे याद है, मेरे असम विश्वविद्यालय में वापस आने के पहले ही दिन उन्होंने मेरी आलोचना करते हुए और मुझ पर कुछ आरोप लगाते हुए एक लंबा व्याख्यान दिया था और तब से कई मौके आए जब उन्होंने मुझे रोकने या मुझे विचलित करने की कोशिश की। लेकिन इन सब बातों ने मेरा खुद पर विश्वास बढ़ा दिया था कि मुझमें कुछ तो अच्छा है जिसे डीन नजरअंदाज नहीं कर सकते थे । वह मुझसे प्यार करे या मुझसे नफरत, यह उसकी पसंद थी लेकिन वह मुझे नजरअंदाज नहीं कर सकते थे । यह मेरी नैतिक जीत थी और अपने संघर्ष और लड़ाई को जारी रखने के लिए उन दिनों मेरे लिए मनोबल की बहुत जरूरत थी। 

विभाग में सभी को कुछ न कुछ जिम्मेदारी दी गई थी। मुझे कोई भी जिम्मेदारी नहीं दी गई। विचार मुझे विभाग में अप्रासंगिक बनाने का था। मैंने इसका फायदा उठाया और खुद को बिल्कुल अप्रासंगिक बना लिया। इतना अप्रासंगिक कि कोई मुझसे मेरे बारे में कुछ भी नहीं पूछता था।  मैं विभाग में मौजूद हूं या नहीं, इस पर कोई ध्यान नहीं देता था। यह मेरे लिए फायदेमंद स्थिति थी। मैंने अपने शोध कार्य और उस समय लंबित कानूनी मामलों पर पूरा ध्यान केंद्रित किया। इस अप्रासंगिकता का पूरा फायदा मैंने अपने शोध कार्य, किताब लेखन, प्रोजेक्ट करने इत्यादि में लगा दिए।  

अब, जब हर कोई मुझे 'प्रोफेसर' बनने के लिए बधाई दे रहा है, तो मुझे नम्रता से लगता है कि 2014 से 2017 तक असम विश्वविद्यालय में रहने के कारण यह सब संभव हो गया, जिसने मेरे बायोडाटा को समृद्ध आकार देने और इसे और अधिक आकर्षक बनाने में मदद की।  २०१४ में असम विश्वविद्यालय वापस जाना मेरी पसंद नहीं बल्कि मजबूरी थी। सामान्य परिस्थितियों में, मैं वहाँ वापस नहीं जाता। अगर नहीं जाता तो तो न ही पीएचडी का मार्ग दर्शन कर पाता, न ही शोध पत्रों पर काम कर पाता।  जिसके कारण उस समय संस्थान में मौजूद परिस्थितियों को देखते हुए पर्याप्त संख्या में पीएचडी का मार्गदर्शन करने का मौका नहीं मिलता।  वास्तव में ब्रह्मांड ने मेरी सफलता की साजिश रची थी।

Monday, March 7, 2022

ब्रह्मांड की शाजिश -३ 

मेरे घर पर स्थापित लैंडलाइन फोन (उस समय असम में मोबाइल फ़ोन नहीं था) की घंटी बजी और मैंने फोन उठाया।

"हैलो", मैंने कहा।

एक जानी-पहचानी आवाज ने मेरे कानों को छुआ, "मैं प्रोफेसर बेज़बोरा बोल रहा हूँ" । यह सेंटर फॉर मैनेजमेंट स्टडीज (सीएमएस), डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय, डिब्रूगढ़ के तत्कालीन निदेशक प्रो. प्रांजल बेजबोरा का फोन था। यह दिसंबर 2003 का पहला सप्ताह था और समय लगभग रात के 8 बज रहे थे।  पिछली सुबह ही मैं सेंटर फॉर मैनेजमेंट स्टडीज, डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर (उस समय के लेक्चरर , क्योंकि लेक्चरर का पद असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में 2008 से नामित किया गया था) के पद के लिए एक साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुआ था। मैंने उसका अभिवादन किया। फिर उन्होंने कहा, "आपका साक्षात्कार अच्छा था और साक्षात्कार में आपका प्रदर्शन देखकर मुझे खुशी हुई।"

चिंता और खुशी की मिली-जुली भावना के कारण मैं सही वाक्य नहीं बना पा रहा था और लड़खड़ाती आवाज के साथ मैंने पूछा, "धन्यवाद, महोदय, यह सब आपकी शिक्षाओं के कारण था। कृपया मुझे बताएं कि मुझे आगे क्या करना चाहिए?" यहां यह बताना महत्वपूर्ण होगा कि प्रो. बेजबोरा मास्टर डिग्री स्तर पर मेरे शिक्षक थे और यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मेरे प्रति उनका स्वाभाविक प्रेम और स्नेह था जो की आज भी विद्यमान है।  

वह कुछ देर रुके और बहुत तेजी से बोले, "अब आपको सीएमएस में फैकल्टी के रूप में शामिल होना होगा"।

उनके शब्द उस कमरे में प्रवेश करने वाली ताजी हवा की खुराक की तरह थे जो कई दिनों से बंद था और कई दिनों तक ताजी हवा नहीं देख रहा था। मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी। ऐसा लगा कि यही वह क्षण था जिसके लिए मैंने बचपन से सपना देखा था। मेरी पिछली नियुक्ति डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के वाणिज्य विभाग में थी, लेकिन वह नौकरी बहुत अनिश्चित थी क्योंकि हर छह महीने में अनुबंध की नौकरी का नवीनीकरण करना पड़ता था। हालांकि सीएमएस का प्रस्ताव भी संविदात्मक था, लेकिन इसके दो फायदे थे। पहला वेतन पिछली नौकरी की तुलना में 50% अधिक था और दूसरा, हालांकि यह संविदात्मक था, अनुबंध नियमित प्रकृति का था, जिसका अर्थ है कि इसे हर छह महीने के बाद नवीनीकृत करने की आवश्यकता नहीं थी । हालाँकि मैं पिछले दिन ही साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुआ था लेकिन साक्षात्कार में उपस्थित होने का निर्णय इतना आसान नहीं था।

एक महीने पहले

मैं और मेरी दोस्त बिपाशा चेतिया एक परीक्षा में अन्वीक्षण ड्यूटी कर रहे थे। बिपाशा भी मेरी तरह ही वाणिज्य विभाग की सेवा कर रही थीं। दरअसल, हमें वही नियुक्ति आदेश दिया गया था जिसमें हम दोनों के नाम का जिक्र था। परीक्षा के दौरान, हम कुछ चर्चा करते थे। उसने कहा, "क्या आप सीएमएस में लेक्चरर के पद के लिए साक्षात्कार में शामिल होने जा रहे हैं?"

"साक्षात्कार कब है?" मैंने आश्चर्य से पूछा क्योंकि मुझे इस तथ्य की जानकारी नहीं थी।

“पिछले हफ्ते, विज्ञापन असम ट्रिब्यून में आया था। मैंने इसे देखा और इसमें शामिल होने की सोच रही थी। आप भी उसमे शामिल हो शकते हो क्योंकि वित्त में भी व्याख्याता का एक पद है। इंटरव्यू की तारीख 17 नवंबर है और अभी भी आवेदन करने का समय है”, उसने अपने सुझावों के साथ मुझसे कहा।

"क्या आप इस नौकरी से खुश नहीं हैं? सीएमएस में नई नौकरी भी संविदात्मक होगी”, मैंने उससे पूछा और इस मुद्दे पर कुछ स्पष्टता पाने की भी कोशिश की।

“वहां वेतन इससे अधिक है और इसके अलावा, वह अनुबंध हमारे वर्तमान अनुबंध की तरह नहीं होगा जिसकी हर छह महीने के बाद समीक्षा की जानी चाहिए। तो उस नौकरी में अधिक निश्चितता है, कम से कम इस से बेहतर", उसने समझाया और मुझे नई नौकरी के लिए आवेदन करने के लिए मनाने की कोशिश की और मैं उसकी बातों से आश्वस्त हो गया। तुरंत मैंने सीएमएस में उस नौकरी के लिए आवेदन करने का मन बना लिया। लेकिन फिर भी, मैंने उससे पूछा, "वाणिज्य विभाग में एक व्याख्याता (छुट्टी रिक्ति पर) की भर्ती के लिए विज्ञापन के खिलाफ हमने जो आवेदन जमा किया था, उसके बारे में क्या?"

“जब भी वह साक्षात्कार आयोजित किया जाएगा, हम हमेशा उपस्थित हो सकते हैं। आपको उस साक्षात्कार में आने से कोई नहीं रोक सकता”, उसने मुझे फिर से मना लिया।

मेरे विश्वविद्यालय में संविदा पद पर शामिल होने के बाद, एक नियमित वेतनमान के लिए एक विज्ञापन था, लेकिन वह रिक्ति एक अवकाश रिक्ति थी। लेकिन उस समय ये बातें (नियमित/छुट्टी/संविदात्मक) मेरे लिए मायने नहीं रखती थीं। मैं सभी प्रकार की वैकेंसी के लिए आवेदन जमा करता था अगर वह किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में होता। मैंने भी उस पद के लिए आवेदन किया था, और उस दिन मैं उस विज्ञापन का जिक्र केवल अपने दोस्त से कर रहा था, और उसने मुझे फिर से नए साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने के लिए मना लिया।

16 नवंबर 2003

नवंबर 2003 के दूसरे सप्ताह में असम के तिनसुकिया में प्राकृतिक वातावरण हल्का ठंडा था, लेकिन राजनीतिक वातावरण बहुत गर्म था। पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे ने अपने ग्रेड 4 के कर्मचारियों की भर्ती के लिए एक विज्ञापन जारी किया था और पूरे भारत के लोगों ने इसके लिए आवेदन किया है। बड़ी संख्या में बिहार के लोगों ने भी इसके लिए आवेदन किया था।  ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने असम राज्य के बाहर के लोगों को असम में काम करने के लिए भर्ती करने से रोकने के लिए और अपना विरोध दर्ज कराने के लिए अपना विरोध प्रदर्शन शुरू किया था और इसी क्रम में 'असम बंद' का आह्वान किया था।  बंद का आह्वान 17 नवंबर 2003 को, जिस तारीख को साक्षात्कार निर्धारित किया गया था, उसी दिन किया गया था।  

मैंने 16 नवंबर 2003 को डिब्रूगढ़ जाने का सोचा। मैंने अपने एक जूनियर को फोन किया जो विश्वविद्यालय के पास एक निजी छात्रावास में रहता था। वह एक रात के लिए मेरी मेजबानी करने के लिए सहमत हो गया । मैं डिब्रूगढ़ के लिए बस लेकर वहां गया। जब मैं हॉस्टल पहुँचा तब तक एक अंधेरी शाम हो चुकी थी। उन्होंने मेरा स्वागत किया और मैंने हॉस्टल में रात बिताई। अगले दिन इंटरव्यू था। मैं कुलपति के कार्यालय में गया जहां यह निर्धारित था। उम्मीदवारों की अच्छी खासी संख्या थी। लेकिन कुछ समय बाद कुलपति के कार्यालय से एक व्यक्ति बाहर आया और बताया कि हड़ताल के कारण साक्षात्कार स्थगित कर दिया गया है और अगली तिथि की घोषणा बाद में की जाएगी। हम जगह से तितर-बितर हो गए लेकिन मैं तिनसुकिया में अपने घर नहीं आ सका क्योंकि हड़ताल के कारण परिवहन का एक भी साधन काम नहीं कर रहा था। मैंने वो रात भी एक और दोस्त के घर बिताई और अगले दिन मैं अपने घर आ गया।

5 दिसंबर 2003

साक्षात्कार 6 दिसंबर 2003 को पुनर्निर्धारित किया गया था। मैंने सभी प्रकार की तैयारी की जैसे कि अपने सभी प्रशंसापत्र को एक फाइल में ठीक से रखना, अपने रिज्यूमे का प्रिंट आउट लेना जो उस समय सिर्फ एक पेज का था ताकि मैं आसानी से साक्षात्कार के लिए उपस्थित हो सकूं। अचानक मुझे मेरे पूर्व एचओडी का फोन आया। उन्होंने अपने ट्रेडमार्क तेज आवाज में कहा, "क्या आप सीएमएस में साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने जा रहे हैं जो कल होगा?" 

मैंने उत्साह से कहा, "हाँ सर"।

“देखो, आप हमारे विभाग में काम कर रहे हैं और आपका अनुबंध अगले छह महीने के लिए नवीनीकृत किया जाना है। यदि आप चयनित हो गए हैं तो हमें आपके लिए कोई विकल्प खोजना होगा। लेकिन आप वहां आवेदन क्यों कर रहे हैं? वह पद संविदात्मक है और यह संविदात्मक रहेगा। निकट भविष्य में इसे नियमित करने की कोई उम्मीद नहीं है। इसके अलावा, आपने हमारे विभाग में एक नियमित पद के लिए अपना आवेदन जमा कर दिया है और यहां एक नियमित वेतनमान पाने का मौका है”, उन्होंने कहा।

मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था। मेरा सारा उत्साह चला गया था। मैं, वास्तव में, लड़खड़ा रहा था।

एक मिनट से भी कम समय के लिए रुकने के बाद वह बोले, "देखो रंजीत, क्योंकि तुम मेरे छात्र हो, मुझे तुमसे स्नेह है और तुम मेरे एक होनहार छात्र हो। इसलिए, मैं आपको पसंद करता हूं और मुझे आपकी भलाई में दिलचस्पी है, इसलिए कोई भी निर्णय बहुत सावधानी से लें", उन्होंने कहा और इस बार वह थोड़ा नरम थे।

"हाँ सर, मैं निश्चित रूप से आपकी सलाह का ध्यान रखूँगा, और यह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है", मैंने कहा।

"और एक बात मैं आपको बताना चाहता था कि अगर आप दूसरे विभाग में जाते हैं, तो मेरी दिलचस्पी आपमें कम हो जाएगी", इस बार उनकी आवाज में एक तरह की चेतावनी थी और फिर उन्होंने फोन काट दिया।

इस बातचीत के बाद मैं काफी तनाव में था। तब तक मैं यही सोच रहा था कि यदि मेरा चयन नहीं हो सका तो मेरे पास नौकरी है, हालांकि अस्थायी प्रकृति की है जिसके सहारे मैं कुछ कर सकता था तथा अपना सामान्य जीवन यापन कर सकता था।  लेकिन मैं इस बातचीत के बाद उस संविदात्मक नौकरी की निरंतरता को लेकर भी चिंतित था। मेरे परिवार के सभी सदस्य तनाव में थे और आखिरकार, हमने अगले दिन होने वाले साक्षात्कार में शामिल नहीं होने का फैसला किया।

6 दिसंबर 2003

अगले दिन मैं सुबह जल्दी उठा और नाश्ता करने के बाद खाली बैठा था। अचानक मैंने अपने एक प्रोफेसर को फ़ोन करने की सोची।  ये वही प्रोफेसर थे जो आगे चलकर मेरे पीएचडी शोध मार्गदर्शक भी बने।  मैंने उन्हें फोन किया और कहा कि मैं उसी दिन निर्धारित साक्षात्कार में उपस्थित नहीं होने जा रहा हूं और साथ ही उक्त निर्णय का कारण भी बताया।  

"आप वर्तमान नौकरी खोने के डर से इस साक्षात्कार में उपस्थित नहीं हो रहे हैं। क्या आप निश्चित हैं कि यह नौकरी कुछ समय बाद समाप्त नहीं होगी और यह अनंत काल तक चलती रहेगी?” उन्होंने पूछा।

"नहीं सर", मैंने कहा। 

“तो यह नौकरी कुछ समय बाद किसी भी तरह समाप्त हो जाएगी। लेकिन यदि आप उस साक्षात्कार में सफल हो जाते हैं तो वह संविदा वाली नौकरी भी नियमित प्रकृति की  होगी और बाद में उसके नियमित होने की भी संभावना है। भले ही इसे नियमित नहीं किया गया है, लेकिन प्रबंधन विभाग में काम करने के आपके अनुभव का महत्व अधिक होगा और आपकी पहुंच आईआईएम तक भी होगी”, उन्होंने विचारोत्तेजक लहजे में कहा। उन्होंने आगे कहा, "अब ज्यादातर नए नियमित पद प्रबंधन विभाग के लिए आ रहे हैं।  तो मेरे हिसाब से इंटरव्यू में शामिल होने और चांस लेने में कोई बुराई नहीं है। इसके अलावा, एक साक्षात्कार में उपस्थित होना अपने आप में एक अनुभव है", उन्होंने उसी प्रवाह में कहा। 

उनके शब्दों ने एक चमत्कार की तरह काम किया और अचानक मुझे साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने के लिए पूरी तरह से चार्ज कर दिया । चूंकि मैंने पहले से ही साक्षात्कार में उपस्थित होने की तैयारी की थी, इसलिए मुझे तैयार होने में ज्यादा समय नहीं लगा और मैं साक्षात्कार के लिए निकल गया।

मैं साक्षात्कार में उपस्थित हुआ। कई उम्मीदवार थे। सभी बहुत अच्छे और प्रतिष्ठित संस्थानों से थे, हालांकि, जिस व्यक्ति ने मुझे शुरू में साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने के लिए प्रेरित किया, सुश्री बिपाशा चेतिया, उपस्थित नहीं हुईं। मेरा इंटरव्यू अच्छा चला और इंटरव्यू के बाद मैं अपने घर वापस आ गया।

अगले दिन, प्रो. बेज़बोरा ने मुझे साक्षात्कार में मेरी सफलता के बारे में सूचित करने के लिए (वह कॉल जिसका मैंने पहले पैराग्राफ में उल्लेख किया था) बुलाया। मैंने कुछ दिनों के बाद सीएमएस ज्वाइन किया और लगभग 5 वर्षों तक वहां सेवा की। सीएमएस ने मुझे लगभग वह सब कुछ दिया है जो एक व्यक्ति अपने करियर के शुरुआती दौर में चाहता है। मैंने सीएमएस में काम करते हुए बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में पीएचडी की थी और आज मैं एक प्रबंधन विभाग में काम कर रहा हूं क्योंकि मेरी पीएचडी बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में है। मैंने यूनिसेफ द्वारा प्रायोजित एक प्रायोजित परियोजना पूरी की, कई शोध पत्र प्रकाशित किए और ऐसे ही कई अकादमिक और पेशेवर असाइनमेंट प्रकाशित किए। प्रो. बेजबोरा सीएमएस में काम करने वाले हम सभी के लिए एक पिता के समान थे और उन्होंने हमें खुद को तलाशने और तराशने की हर तरह की आजादी दी थी। उन्होंने हमें विशेष रूप से भविष्य के सभी प्रकार के शैक्षणिक और व्यावसायिक कार्यों के लिए तैयार किया।  आज मैं किसी भी बड़े मुद्दे को हल करने में आत्मविश्वास का अनुभव करता हूं और इसका श्रेय मेरे शिक्षकों विशेषकर प्रो. बेजबोरा की शिक्षाओं को जाता है, जिन्होंने मुझे खुली छूट दी और मुझ पर अपना विश्वास दिखाया। वाणिज्य विभाग में विज्ञापित नियमित पद बिपाशा को दिया गया था जिसमें वेतन सीएमएस की तुलना में काफी अधिक था। हालांकि, जैसा कि मेरे शिक्षक ने कहा है, एक प्रबंधन विभाग में सेवा करने का अनुभव मुझे आईआईएम अहमदाबाद से एफडीपीएम पूरा करने के लिए और अंत में व्यवसाय प्रशासन विभाग, असम विश्वविद्यालय और फिर भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद में ले गया। अगर बिपाशा ने मुझे विज्ञापन के बारे में सूचित नहीं किया होता और मुझे साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने के लिए मनाया नहीं होता तो यह संभव नहीं होता। यह पाउलो कोएल्हो की कहावत की पुष्टि करता है "हम प्रकाश के योद्धाओं को कठिन समय में धैर्य रखने के लिए तैयार रहना चाहिए और यह जानने के लिए कि ब्रह्मांड हमारे पक्ष में साजिश कर रहा है, भले ही हम यह न समझें कि कैसे"।

Tuesday, February 22, 2022

 ब्रह्मांड की साजिश-II

"सर, मुझे आपसे कुछ कहना है", डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार कार्यालय के चपरासी ने बहुत धीमी आवाज़ में मुझसे कहा। मैं उसकी ओर मुड़ा। उनका मेरे प्रति स्नेह है और आमतौर पर, मैं अपने किसी भी जूनियर स्तर के कर्मचारी के साथ बहुत सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखता हूं। वह मेरे करीब आया और कहा, "मैंने विज्ञापन देखा है जो सीएमएस में नियमित संकाय की भर्ती के लिए निकलेगा"। CMS का मतलब सेंटर फॉर मैनेजमेंट स्टडीज (CMS), डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी (डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी में बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन विभाग को CMS के रूप में नामित किया गया है)। 

अक्टूबर 2008 का दूसरा हफ्ता था और मैं किसी काम से रजिस्ट्रार ऑफिस गया था और शाम के करीब 5.30 बजे का समय था। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस समय तक अधिकांश लोग जा चुके थे और जिस भवन में रजिस्ट्रार का कार्यालय था, उस भवन में बहुत कम लोग उपस्थित थे। CMS की स्थापना वर्ष 2003 में हुई थी और इसके अस्तित्व के पांच वर्षों में विभाग में कोई स्थायी शिक्षक नियुक्त नहीं हुवा था । विभाग के सभी शिक्षक संविदा पर थे । खबर आई थी कि तीन सबसे पुराने संकाय सदस्यों के लिए तीन स्थायी पद सृजित किए गए थे। ये तीन फैकल्टी सदस्य मैं और मेरे दो अन्य सहयोगी थे, जो शुरू से ही CMS में शामिल हुए थे। आवश्यक विशेषज्ञताओं को भी उसी के अनुसार डिजाइन किया गया था। तो, 'लेखा और वित्त' के लिए भी एक विशेषज्ञता थी जो मेरी विशेषज्ञता थी। प्रक्रिया संबंधी औपचारिकताएं पूरी की जा रही थीं। चपरासी उस विज्ञापन की बात कर रहा था।

"हाँ, मुझे पता है कि अगले हफ्ते तक वह विज्ञापन जारी कर दिया जाएगा", मैंने उससे कहा। 

"लेकिन मुझे आपको कुछ और भी बताना है", उसने उसी नरम और धीमी आवाज में कहा। 

"कृपया बताएं", मैं इस बार थोड़ा चिढ़ गया था। मैं सोच रहा था कि वह मुझे इस विज्ञापन के बारे में और क्या बताएगा, कुछ दिन पहले निदेशक और कुलपति दोनों ने ही हमसे संकाय सदस्यों की भर्ती के लिए इस नए विज्ञापन के बारे में बता की थी।  मैं और मेरा एक अन्य सहयोगी उस बैठक में उपस्थित थे। क्या यह चपरासी मुझसे ज्यादा जानता है।  मैं CMS में एक सीनियर फैकल्टी था यदपि वह पद संविदा पर था ?

"सर, क्या आपकी विशेषज्ञता वित्त है?" उसने मेरी विशेषज्ञता की पुष्टि करने की कोशिश की।

"हाँ", मैंने चिड़चिड़े स्वर में कहा।

"सर वह पद एसटी के लिए आरक्षित है", उसने इस बार भी उसी स्वर में कहा।

"क्या?" मैंने वेदना और आश्चर्य दोनों में कहा।

“हाँ सर, मैंने अभी वह फ़ाइल देखी जहाँ पद के वितरण का उल्लेख है और जिस पद के लिए वित्त की विशेषज्ञता के लिए चिह्नित किया गया था, वह एसटी के लिए आरक्षित है। मैंने इसे अपनी आंखों से देखा है और अभी-अभी”, उसने मुझसे कहा। इसके बाद वह साइकिल लेकर अपने घर के लिए निकल गए।

मैं अवाक था और समझ नहीं पा रहा था कि आगे क्या करूं। अगर वह सच बोल रहा था, तो इसका मतलब है कि विज्ञापन जारी होने के बाद मैं उस पद के लिए आवेदन नहीं कर पाऊंगा। 

मैं घर आया और बिना किसी से बात किए चुपचाप बैठ गया। मेरी बड़ी बेटी मेरे साथ खेल रही थी लेकिन मैं उससे जुड़ नहीं पा रहा था। मैंने दराज खोली और एक लिफाफा निकाला। यह 'असम यूनिवर्सिटी, सिलचर' का इंटरव्यू कॉल था। हालाँकि मैंने असम विश्वविद्यालय, सिलचर में सहायक प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन किया था।  मैंने साक्षात्कार के लिए नहीं जाने का मन भी बना लिया था।  उस समय मुझे उम्मीद थी कि CMS में हमारे संविदात्मक पदों को नियमित कर दिया जाएगा और चूंकि वह स्थान मेरे गृहनगर से बहुत निकट था। मेरे गृहनगर, मेरे जन्मस्थान पर रहकर सेवा करना मेरे लिए सबसे अच्छा होता। अक्सर लोग मुझसे किसी अन्य संस्थान में साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने के मेरे निर्णय के बारे में पूछते थे और मैं उन्हें बताता था कि यदि पद नियमित हो जाता है तो मैं CMS में बना रहूंगा। मैं अपने गृहनगर के अलावा किसी अन्य स्थान पर काम करने की स्थिति के बारे में सोच भी नहीं पा रहा था। 

लेकिन आज वह सपना नामुमकिन सा लग रहा था क्योंकि वित्त विशेषज्ञता का पद एसटी वर्ग के लिए आरक्षित था। जिस संविदात्मक पद पर मैं काम कर रहा था वह भी दिसंबर 2008 के महीने में समाप्त हो रहा था और इसका मतलब है कि अगर अनुबंध का नवीनीकरण नहीं किया गया तो बेरोजगार होने की संभावना थी जो फिर से कई अन्य कारकों और अनिश्चितताओं पर निर्भर करेगा। मेरे पास देखभाल करने के लिए परिवार है। मेरे पिता सेवानिवृत्त हो चुके थे और मेरे भाई की नौकरी अभी भी निश्चित नहीं थी। पूरे परिवार की जिम्मेदारी मुझ पर थी।

मैंने असम विश्वविद्यालय, सिलचर में साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने का निर्णय लिया । इंटरव्यू नई दिल्ली में होना था। उस तारीख से लगभग 5-6 दिन बाद की बात है जब यह घटना हुई। मैंने अपना लैपटॉप खोला नई दिल्ली के लिए ट्रेन का टिकट खोजने लगा। मुझे तत्काल योजना के तहत एक कन्फर्म टिकट मिला। दो दिनों के बाद, मैं दिल्ली के लिए ट्रेन में चढ़ा, वहाँ पहुँचा और साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुआ। 

कुछ दिनों बाद मुझे साक्षात्कार में अपनी सफलता की खबर मिली। इसी बीच नियमित पदों के लिए विज्ञापन भी जारी किया गया और उम्मीद के मुताबिक वित्त विशेषज्ञता वाले सहायक प्रोफेसर का पद एसटी के लिए आरक्षित कर दिया गया। मेरे पास असम विश्वविद्यालय, सिलचर में शामिल होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। निश्चित रूप से, यह एक सुखद निर्णय नहीं था। अपने गृहनगर, अपने लोगों को छोड़कर, मुझे एक ऐसी जगह स्थानांतरित होंना पड़ा, जो मेरे लिए पूरी तरह से अनजान थी और मैं इन सभी घटनाक्रमों से बिल्कुल भी खुश नहीं था लेकिन मजबूरी में मुझे उन सभी परिवर्तनों को स्वीकार करना पड़ा। 

प्रारंभ में, मैं असम विश्वविद्यालय में अपने प्रवास का आनंद नहीं ले रहा था लेकिन धीरे-धीरे मुझे वहां कुछ बहुत ही रोचक और अच्छे दोस्त मिल गए। मैं उनकी कंपनी का आनंद लेने लगा। जल्द ही असम विश्वविद्यालय मुझे आकर्षक लगने लगा और मैंने विश्वविद्यालय की अधिकांश गतिविधियों में खुद को शामिल करना शुरू कर दिया। उस दौरान मुझे कुछ सबसे मूल्यवान दोस्त मिले, और मैंने उनकी संगत से बहुत कुछ सीखा। असम विश्वविद्यालय में एक चीज जिसने मुझे सबसे ज्यादा मदद की, वह थी इसकी विविधता और विषम संस्कृति जो डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय में पूरी तरह से गायब थी। देश के कोने-कोने से ऐसे लोग थे जो विषय और योग्यता की अपनी समझ के साथ असम विश्वविद्यालय आए थे। अक्सर एक समृद्ध चर्चा होती थी और उन चर्चाओं के दौरान मेरी कई अवधारणाएं साफ होती गईं और चर्चाएं समृद्ध थीं क्योंकि सभी ने अलग-अलग जगहों से अपने विषय को सीखा था और उन विषयों पर उनकी गहरी पकड़ थी । जल्द ही यह मेरे प्रकाशनों में भी दिखाई देने लगी।  असम विश्वविद्यालय में अपने दोस्तों की संगति से मिली प्रेरणा के कारण मैं कुछ बहुत अच्छे पेपर लिख पाया। इसके अलावा, मैं सिलचर में किसी भी व्यक्ति को नहीं जानता था, इसलिए समय व्यतीत करने का एकमात्र तरीका खुद को एक शोध पत्र लिखने में शामिल करना था। 4 साल से अधिक समय बीत चुका था और फिर मैंने भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद में एक उच्च पद के लिए आवेदन किया और मेरा चयन हो गया। इस सफलता का एक बड़ा श्रेय इस तथ्य को जाता है कि मेरे पास कुछ बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले शोध पत्र थे और मैं एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में कार्यरत था।

अब मैं अक्सर सोचता हूं कि वित्त विशेषज्ञता के लिए सहायक प्रोफेसर का पद एसटी के लिए आरक्षित नहीं होता तो क्या होता। उत्तर बहुत सरल है मैं CMS में सहायक प्रोफेसर रहा होता जो अभी भी एक स्व-वित्तपोषित विभाग है।

Monday, February 21, 2022

 बांग्लादेश डायरी -१ 

मैं एक होटल के कमरे में बैठा हूँ। यह पहली बार नहीं है कि मैं किसी होटल में हूं, लेकिन निश्चित रूप से यह पहली बार है कि मैं किसी विदेशी भूमि पर हूं। यह होटल हर तरह की आधुनिक विलासिता से भरपूर है। होटल के कमरे के केंद्र में, एक टेबल रखी गई है और इस टेबल पर मैंने अपना पासपोर्ट रखा है जो इस तथ्य की गवाही दे रहा है कि मैं भारतीय हूं। आज सीमा पर आव्रजन संबंधी औपचारिकताएं करने के दौरान, अधिकारी ने मुझसे पूछा "क्या आप भारतीय हैं?" शायद उसे उस सीमा से गुजरने वाले हर किसी से इस तरह का सवाल पूछने की आदत होगी । लेकिन मुझे उसके इस प्रश्न से खुशी महसूस हुई। जीवन में पहली बार मैं किसी को अपना परिचय "हाँ, मैं भारतीय हूँ" के रूप में दे रहा था। भारत में रहते हुए, हम कभी भी खुद को "भारतीय" के रूप में पेश नहीं करते हैं, बल्कि हम बंगाली, असमिया, बिहारी आदि होते हैं। वास्तव में, हम 'अनिवासी भारतीय' बन गए हैं, जिसका अर्थ है, भारत में निवास करना, लेकिन खुद को भारतीय के रूप में न देखना।

बांग्लादेश के उत्प्रवास कार्यालय में, एक युवा अधिकारी था। उनका नाम श्री राजीब देब था। वह सिलहट इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के एमबीए प्रोग्राम के  छात्र थे। वह बांग्लादेश के आव्रजन / उत्प्रवास कार्यालय में भी काम करते थे। उन्हें मेरी देखभाल करने के लिए सिलहट इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, सिलहट के बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन विभाग के प्रमुख द्वारा सूचित किया गया था। उन्होंने मुझे पहचान लिया और उन्होंने मेरी ओर से सभी औपचारिकताएं पूरी कीं। उन्होंने मुझे एक कप चाय भी पिलाई। यह बांग्लादेश में मेरा पहला अभिवादन था और मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि बांग्लादेश ने मेरा स्वागत अच्छे से किया। अच्छा अनुभव रहा। एक विदेशी भूमि में भी इस तरह के एक विशेषाधिकार प्राप्त व्यवहार, क्योंकि मैं एक शिक्षक हूं और उस समय वास्तव में एक शिक्षक होने पर गर्व महसूस किया।

श्री राजीब देब ने सीमा से सिलहट शहर तक मेरी यात्रा के लिए वाहन की व्यवस्था की और वाहन के चालक को मुझे मेरे गंतव्य तक पहुचने के लिए जरूरी   निर्देश दिया। अगली समस्या थी मुद्रा। मेरी जेब में केवल 50 / - डॉलर थे। यह मैंने एक विदेशी मुद्रा डीलर से भारत में खरीदा था। मैंने उसे 3,500 रुपये दिए और बदले में उसने मुझे 50- डॉलर का एक ही नोट दिया था। तब मुझे हमारी मुद्रा की कीमत का एहसास हुआ। नोटों के एक बंडल के लिए नोट का एक टुकड़ा। अपनी औकात जानने के लिए यह काफी था और वास्तव में बहुत हतोत्साहित करने वाला था। लेकिन करें क्या। हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा, चाहे हम इसे पसंद करें या नहीं। मेरे पास एक कुछ भारतीय मुद्रा भी थी लेकिन बांग्लादेश में इसका भी कोई काम नहीं था। मेरे बटुए में एक और 300 टाका जो कि बांग्लादेश की मुद्रा है थी। यह भी पहली बार हुआ कि मेरे बटुए में तीन देशों की मुद्रा थी, लेकिन फिर भी टैक्सी का किराया देना बहुत मुश्किल हो रहा था, क्योंकि ऑटो चालक किराया 600 टाका मांग रहा था और मेरे पास केवल 300 टाका बटुए में थे । श्री राजीब देब ने बांग्लादेशी टका के साथ भारतीय मुद्रा के आदान-प्रदान में मेरी मदद की। उस दिन  500 रुपये के बदले केवल 560 टाका मिले। मैंने खुद से पूछना शुरू कर दिया “क्या यह भारतीय अर्थव्यवस्था का स्तर है? हमने सुना है कि भारत इस क्षेत्र में एक बड़ा भाई है और इस पूरे उप-महाद्वीप को भारतीय उप-महाद्वीप के रूप में जाना जाता है। भारत दुनिया की एक बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था है और क्या यह उसकी मुद्रा का मूल्यांकन है? ” मुद्रा का आदान-प्रदान करने वाले दुकानदार ने कहा था कि पहले दरें अधिक थीं लेकिन अब भारतीय रुपये के मूल्यह्रास के साथ यह लगभग बराबर होने जा रहा है। 

मैंने उसके बाद अपनी यात्रा शुरू की। मैंने बांग्लादेश को वास्तव में भारत के समान पाया। एक ही लोग, एक ही जलवायु, एक ही भाषा, लेकिन दो अलग-अलग देश। मुझे एक हिंदी फिल्म 'सरफ़रोश' के एक संवाद की याद आयी, जिसमें नसीरुद्दीन शाह कहते हैं, "सियासत के दलालो ने ज़मीन पे लकीरें खिच कर मुल्क के दो टुकड़े कर दिए ताकि दोनो तरफ के जाहिलो को ये चुनने की आज़ादी मिल जाये कि कौन सा गधा तख्त पर बैठेगा"।

बोर्डर से सिलहट तक की यात्रा बहुत सुखद थी। सड़कें बहुत अच्छी स्थिति में थीं, शायद तब भारत के सिलचर से करीमगंज तक की सडको से बेहतर थीं। मैं पहली बार किसी विदेशी भूमि में आने के लिए उत्साहित था। मोबाइल नेटवर्क पहले ही खो गया था। मैं वाहन के बाहर का नजारा देख रहा था। मुझे वाहन विशेष रूप से निजी वाहन कम दिखे। मैंने ड्राइवर से पूछा, “सड़क पर निजी कारों की संख्या कम क्यों है? क्या यह किसी विशेष अवसर के कारण है या बांग्लादेश के लोग निजी कारों को रखना पसंद नहीं करते हैं? " 

उसने कहा, “सर, वास्तव में बांग्लादेश में कार का रखरखाव बहुत महंगा है। 300% आयात शुल्क है। इस प्रकार, जिस कार की कीमत बांग्लादेश के बाहर तक़रीबन ५, ००,००० है, उसकी क़ीमत २०, ००,००० बांग्लादेश में है। इसके अलावा, जिन लोगों के पास कार है, उन्हें सरकार को सालाना 50,000 टाका का रोड टैक्स देना होता है। ” यह सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा कि यह भारत में उन लोगों के लिए यह एक सबक होना चाहिए जो अक्सर कहते हैं कि भारत सरकार ने लोगों के लिए कुछ नहीं किया है। मेरे मन मे भारत सरकार के प्रति सराहना के भाव उत्पन्न होने लगे, हालांकि मैं हमारी सरकार का बड़ा आलोचक हूं। एक बार कार्य तंत्र से बाहर होने के बाद हमें अपने तंत्र की कीमत का एहसास होता है। लेकिन फिर मैंने महसूस किया कि सड़कों की अच्छी स्थिति आंशिक रूप से सड़कों पर कम बोझ के कारण भी थी। एक तरह से, यातायात को नियंत्रित करने का एक तरीका, अच्छा या बुरा मुझे नहीं पता, लेकिन निश्चित रूप से जो लोग कार चला रहे थे बहुत ही आराम से ड्राइविंग कर रहे थे। 

जिस गाड़ी में मैं यात्रा कर रहा था वह एक भारतीय ब्रांड था। मुझे रास्ते मे भारतीय ब्रांड के दो पहिया वाहन बहुत दिखाई दिए तथा लोकप्रिय लगे। कुछ चीनी ब्रांड भी दिखाई दिए, लेकिन जब मैंने बांग्लादेश में मोटर साइकिलों की लोकप्रियता के बारे में गाड़ी चालक से पूछा, तो चालक ने बताया कि चीनी ब्रांड अच्छी गुणवत्ता के नहीं हैं और लोग भारतीय ब्रांडो की विश्वसनीयता के कारण भारतीय ब्रांडों का उपयोग करना पसंद करते हैं। 'विश्वसनीयता' शब्द विशेष रूप से भारतीय ब्रांडों के साथ जुड़ा हुआ है, इससे मुझे कुछ गर्व हुआ अपने भारतीय होने पर। 

सिलहट के रास्ते में, मैंने कुछ स्कूलों और कॉलेजों को पार किया। मैंने पाया कि लड़कियां एक समूह में घूम रही थीं और स्कूलों में जा रही थीं। लड़के अलग समूह में स्कूल जा रहे थे। मुझे एक भी लड़का और लड़की एक-दूसरे से बात करते हुए नहीं मिले । ज्यादातर लड़कियां हिजाब और बुर्का पहने थीं। बांग्लादेश में शायद इस्लामिक संस्कृति बहुत हावी है। मुझे भी लड़के और लड़कियों पर दया आ रही थी। शायद वे एक-दूसरे से बात करना चाहते होंगे लेकिन वहां के रीति-रिवाज और परंपराएं उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं देती। बांग्लादेश एक घनी आबादी वाला देश है। इस अवसर पर फिर से मुझे एक फिल्म परदेस का एक संवाद याद आ रहा था जिसमें अभिनेता ने भारतीय अभिनेत्री को निराशा में कहा था, “तुम लोगो जैसा फरेबी मैंने नही देखा, दिखाने के लिए मर्दो की सोसाइटी अलग, औरतो की सोसाइटी अलग लेकिन बच्चे पैदा करने में तुम लोगों ने वर्ल्ड रिकॉर्ड बना रखा है।”

लगभग एक घंटे गाड़ी से चलने के बाद, मैं होटल पहुँच गया। मैंने अपना दोपहर का भोजन लिया और फिर कुछ देर तक लेटकर आराम किया। मेरा व्याख्यान शाम 5 बजे से था। मैं सिलहट अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के परिसर में पहुँचा और कुलपति ने स्वयं मुझे प्रतिभागियों से मिलवाया। उस दिन का व्याख्यान अच्छे से निपट गया। अगले दिन का व्याख्यान मैन व्यावहारिक वित्त पर दिया, प्रतिभागियों ने कहा कि यह उनके लिए एक नई अवधारणा थी। 

मैंने शाम को सिलहट में बाजार का दौरा किया। आगामी ईद त्योहार के कारण बाजार बहुत व्यस्त थे। बाजार में मै लड़कियों के लिए जींस और पतलून बेचने वाली एक दुकान को देखकर आश्चर्यचकित था। एक प्रबंधन शास्त्र के प्रोफेसर का मन सक्रिय हो गया और मैंने दुकान में प्रवेश किया। दुकानदार से कुछ जीन्स की कीमत और गुणवत्ता के बारे में बात की और पूछा, “यहाँ मैंने एक भी लड़की को जींस और पतलून पहने नहीं देखा है, फिर आपकी जींस और पतलून कौन खरीदेगा? ” 

दुकानदार ने कहा, "सर, जो लड़कियां बुर्का पहनती है, वही बुर्के के नीचे जीन्स और पतलून पहनती है"। यह मेरे लिए एक और विस्मयादिबोधक था।

मैंने सिलहट में सिनेमा हॉल देखने की अपनी जिज्ञासा दिखाई। मेरा मानना ​​है कि किसी भी जगह की संस्कृति सिनेमा हॉल में बहुत ही विस्तृत रूप में दिखाई देती है। मुझे बताया गया था कि पूरे बांग्लादेश में सिनेमा हालो की स्थिति बहुत खराब हैं। हालांकि, लोगों को फिल्में देखना बहुत पसंद है। बांग्लादेश में हिंदी फिल्में बहुत लोकप्रिय हैं। हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता के कारण, इस देश में हिंदी को भी लोकप्रियता मिल रही है। हिंदी फिल्में हिंदी भाषा को अधिक लोकप्रिय बनाने में एक महान भूमिका निभा रही हैं। कोई शोधकर्ता हिंदी को लोकप्रिय बनाने में हिंदी सिनेमा की भूमिका पर अपना शोध कर सकते है। भारत में, गैर-हिंदी भाषियों को हिंदी सीखनी पड़ती है क्योंकि हिंदी देश की भाषा है। लेकिन भारत के बाहर, हिंदी फिल्म का आनंद लेने के लिए लोग हिंदी सीख रहे हैं।

मैंने एक इस्लामिक बैंक का भी दौरा किया ताकि इसके बारे में कुछ पता चल सके क्योंकि मेरी इस्लामिक फाइनेंस में रिसर्च की रूचि है। यह एक अच्छा अनुभव था।

बांग्लादेश में, चूंकि कार का रखरखाव बहुत महंगा है, इसलिए रिक्शा सार्वजनिक परिवहन का बहुत लोकप्रिय साधन है। ज्यादातर वाहन सीएनजी पर चलते हैं। पूरे बाज़ारो में भारतीय ब्रांडों की बाढ़ थी, लेकिन उनकी कीमत भारत के बाज़ारो से ज्यादा थी।

लेकिन इन सबके अलावा, बांग्लादेश की यात्रा के दौरान वहां के लोगो का अतिथि सत्कार याद रखने लायक है। मैं उनके स्वागत से रोमांचित था। विश्वविद्यालय के शिक्षकों से लेकर विभागाध्यक्ष श्री अब्दुल लतीफ तक; सिलहट इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर, उस होटल के मालिक जहां मैं रुका था, आतिथ्य और स्वागत बस दिल को छूने वाला था और अभी भी मेरी यादों में ताज़ा है। मुझे अपने दोस्त प्रणब शाहा के घर खाने पर आमंत्रित किया गया था। डिनर उत्कृष्ट था और उससे भी अधिक प्रणब और उनकी पत्नी की मेहमाननवाजी  मेरी स्मृति में है। अगले पूरा दिन प्रणब मेरे साथ था और बांग्लादेश छोड़ने से पहले एक विदेशी के लिए आवश्यक सभी आवश्यक औपचारिकताओं को पूरा करने में मेरी मदद की।

मुझे लगता है कि इस तरह की यात्राओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जो दो देशों के बीच संबंधों को मजबूत करेगा। दोनों देश एक समृद्ध इतिहास साझा करते हैं और यदि उचित तरीके से कदम उठाए जाते हैं तो इससे दोनों देशों के लिए काफी सकारात्मक स्थिति बन सकती है।

Friday, February 18, 2022

 ब्रह्मांड की साजिश 

"श्री रंजीत, हम आपको अपने कॉलेज में पूर्णकालिक नियुक्ति नहीं दे सकते हैं और एक फ्रेशर को कॉलेज में अंशकालिक नियुक्ति देना हमारी नीति के खिलाफ है", प्रिंसिपल श्रीमती सुरजीत सिंह ने नरम लेकिन अशिष्ट स्वर में कहा। उनकी बातें मेरे लिए बहुत निराशाजनक थीं लेकिन मेरे पास इसे स्वीकार करने और उनके कार्यालय  निकलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। एक सप्ताह पहले मुझे जी एस लोहिया गर्ल्स कॉलेज, तिनसुकिया में साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था। एक दिन मुझे एक संदेश दिया गया कि मेरा चयन हो गया है और प्रधानाध्यापक ने मुझे कार्यालय समय के दौरान उनसे उनके कार्यालय में मिलने के लिए कहा था। मेरे घर में न टेलीफोन था और न ही ईमेल का जमाना था इसलिए एक व्यक्ति मेरे घर यह खबर देने आया था। मैं रोमांचित था, और मेरे परिवार में सभी बहुत खुश थे कि जल्द ही मैं एक कॉलेज में प्रवक्ता के पद पर आसीन होने जा रहा था। यदपि वह एक प्राइवेट कॉलेज था लेकिन एक बेरोजगार युवक के लिए वह भी बहुत कुछ था। 

मैं उनके कार्यालय गया और उनसे मिला। उन्होंने कहा, "रंजीत, क्या आप बुरा मानेंगे अगर हम आपको कॉलेज के बजाय स्कूल में नियुक्ति पत्र दें और आपको कॉलेज में भी कुछ कक्षाएं लेनी होंगी क्योंकि हम कॉलेज में पूर्णकालिक नियुक्ति नहीं देते हैं।" जिस महाविद्यालय की मई बात कर रहा हूँ उसी का एक उच्च माध्यमिक विद्यालय भी था जो की उसी कैंपस में स्थित था तथा दोनों का प्रबंधन भी एक ही समिति के आधीन था।  

"लेकिन मैम, मैंने कॉलेज में आवेदन किया था", मैंने अपने चेहरे पर विस्मयादिबोधक चिह्न के साथ कहा।

"हाँ, मुझे पता है, लेकिन कॉलेज में, हम आपको केवल अंशकालिक नियुक्ति की पेशकश कर सकते हैं जो आपको केवल 2,000 रुपये प्रति माह दे सकती है और स्कूल में, हम पूर्ण राज्य सरकार द्वारा निर्धारित वेतनमान प्रदान करते हैं", उसने दृढ़ता से कहा। मैंने एक कॉलेज में शिक्षक बनने का सपना देखा था और मैं इतनी आसानी से हार नहीं मानने वाला था।

मैंने कहा, "मैडम, मुझे नहीं लगता कि मैं स्कूली छात्रों को पढ़ाने में सहज हो पाऊंगा, इसलिए अगर कॉलेज में पूर्णकालिक नियुक्ति संभव नहीं है तो मैं अंशकालिक नियुक्ति के साथ ठीक हूं।"

उन्होंने तुरंत जवाब दिया, "इतनी जल्दी में कोई फैसला मत लेना। कुछ समय लो। अपने माता-पिता से चर्चा करो और फिर दोपहर 12 बजे के बाद मेरे पास आओ।"

मैंने कहा, "ठीक है मैडम।" मैंने उनका अभिवादन किया और चुपचाप उसके कक्ष से निकल गया।

मैं अपने घर आया जहां मेरे माता-पिता उत्साह से मेरा इंतजार कर रहे थे। आखिरकार, उनका बेटा एक स्थानीय कॉलेज में सहायक प्रोफेसर बनने वाला था जो कि इलाके का एक बहुत ही प्रतिष्ठित कॉलेज था । इस पर उन्हें गर्व महसूस हुआ। लेकिन जब मैंने उन्हें ये शर्त बताई तो वो हैरान और दुखी हुए।  मेरे परिवार के लिए नौकरी की अत्यधिक आवश्यकता थी क्योंकि मेरे पिता एक स्कूल शिक्षक की नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए थे। मैंने उन्हें प्रधानाध्यापिका के साथ हुई बैठक के परिणाम के बारे में बताया।

उन्होंने मेरे फैसले का समर्थन किया। उनके कहने पर मैं दोपहर 12.00 बजे एक बार फिर प्राचार्य के कक्ष में गया। मैंने कहा, "मैम, मैंने कॉलेज में ही काम करने का फैसला किया है, मेरे लिए वेतन इतना महत्वपूर्ण नहीं है। इसलिए, मैं कम वेतन के साथ भी काम चला सकता हूं। लेकिन मैं कॉलेज में ही पढ़ाऊंगा।" 

"यह नहीं हो सकता। किसी फ्रेशर को पार्ट-टाइम अपॉइंटमेंट नहीं दिया जाता है", फिर से वह बहुत असभ्य थी, और उसने ये शब्द मेरे चेहरे को देखे बिना कहा और फाइलों में कुछ पढ़ना जारी रखा। 

मैं उसके कक्ष से बाहर आया और अपने माता-पिता को घटनाक्रम के बारे में बताया। वे दुखी तो थे पर निराश नहीं थे। जीवन चलता रहा। जब मैंने मास्टर डिग्री पास की, तो मेरे दोस्त अलग-अलग जगहों पर नौकरी के लिए आवेदन कर रहे थे। उनमें से कुछ को स्कूल शिक्षक की नौकरी मिली है। मुझे उन नौकरियों के लिए आवेदन करने के लिए भी कुछ लोगो ने कहा लेकिन मैंने आवेदन नहीं किया।  कहीं न कहीं मेरे मन में ढृण निश्चय था कि मैं स्कूल की नौकरी के लिए नहीं बना हूँ।  

कालांतर में मेरी ही सह पाठिनी को उस कॉलेज में पार्ट टाइम नौकरी मिल गयी जिसके लिए मुझे अस्वीकार कर दिया गया था।  धीरे धीरे मेरे सारे सह पाठी अलग अलग संतानों में, जिनमे ज्यादातर स्कूल शिक्षक ही थे, नियुक्त होते चले गए।  बचा सिर्फ मैं जिसे कहीं पर भी कोई नियुक्ति नहीं मिली थी। फिर भी मैं निराश नहीं था।  

कुछ महीने बीत गए।  एक दिन एक सहपाठी सुश्री अंतरा चंदा ने 16 जून 2003 को रात करीब 8 बजे फोन पर मुझसे कहा, "रंजीत, हमारे विभाग के प्रमुख ने मुझे आपको उनको फोन करने के लिए कहा है, इसलिए कृपया आप उनसे बात कर लें ।" वो हमारे विश्वविद्यालय, जहाँ से मैंने अपनी स्नातकोत्तर की पढाई की थी, के विभागाध्यक्ष के बारे में बात कर रही थी।  

मैंने पुछा "क्यों?"

"मैंने सुना है कि विभाग में व्याख्याता के लिए एक संविदात्मक पद है और इसलिए, वह चाहतें हैं कि हमारे छात्रों का बैच उसी के लिए आवेदन करे। शायद उसी से सम्बंधित कुछ बात करनीं होगी", उसने कहा।

"क्या उन्होंने आपको आवेदन करने के लिए नहीं कहा है?", मैंने उससे पूछा।

"उन्होंने मुझे भी आवेदन करने के लिए कहा है, लेकिन चूंकि मैं एक ऐसे स्कूल में काम कर रहा हूं जो कमोबेश एक नियमित प्रकार की नौकरी है और यह प्रस्ताव विशुद्ध रूप से संविदात्मक होगा और वह भी केवल 5 महीने के लिए, इसलिए मैंने उनसे इस नौकरी के लिए अपनी अनिक्षा बता दी और मैं आवेदन नहीं करुँगी", उसने उस प्रस्तावित नौकरी की पेशकश पर अपना निर्णय सुना दिया।  

"अगर हम इस तर्क से चलते हैं तो हमारे अधिकांश बैचमेट कुछ स्कूलों या कुछ संगठनों में पहले से ही काम कर  रहे है तथा नौकरी की नियमितता के मामले में वे सभी लोग इस वर्त्तमान प्रस्ताव से बेहतर में हैं क्योकि यह नौकरी सिर्फ ५ महीने  ही थी और कोई भी अपनीं नियमित नौकरी छोड़ कर ५ महीने के लिए कोई नौकरी नहीं पकड़ेगा जो की अनिश्चितताओं से भरी हो।", मैंने कहा।

"अगर आप मेरी राय मांगते हैं तो उन्हें आवेदन नहीं करना चाहिए", उसने कहा।

फ़ोन रखने के बाद मैंने एचओडी का नंबर डायल किया। वह मेरी मास्टर डिग्री कक्षाओं में मेरे शिक्षक थे। मेरे प्रति उनका स्वाभाविक प्रेम और स्नेह था। उन्होंने मुझसे कहा कि विभाग में एक शिक्षक की आवश्यकता है और क्या मुझे उस नौकरी में दिलचस्पी है। मैंने तुरंत कहा, "हाँ सर, मुझे नौकरी में दिलचस्पी है"।

उन्होंने कहा, "यदि आप रुचि रखते हैं, तो कल कृपया मेरे कार्यालय में अपना आवेदन, बायोडाटा और प्रशंसापत्र की प्रति जमा करें"। उन्होंने एक छोटा विराम लिया और फिर कहा, "यह केवल छह महीने के लिए अनुबंध पर नियुक्ति होगी और उम्मीदवार के प्रदर्शन के आधार पर, इसे अगले छह महीनों के लिए और नवीनीकृत किया जाएगा। इस समय हम आपको पूरा वेतन नहीं दे पाएंगे। जो कोई भी इस पद पर शामिल होगा, उसे केवल 5,000/- रुपये प्रति माह का भुगतान किया जाएगा।

मैंने कहा, "सर, इस समय कोई भी अवसर प्राप्त करना वेतन से अधिक महत्वपूर्ण है"। इसके बाद मैंने कॉल डाउन कर दी।

तुरंत, मैंने अपनी साइकिल ली और एक साइबर कैफे में गया। यह वह समय था जब एक पर्सनल कंप्यूटर को एक शानदार वस्तु माना जाता था और बहुत से लोग अपना खुद का पर्सनल कंप्यूटर नहीं रख सकते थे। इंटरनेट भी बहुत आम नहीं था। हम जैसे लोगों के लिए इंटरनेट और कंप्यूटर का उपयोग करने का एकमात्र स्थान साइबर कैफे था। मैंने एक आवेदन और मेरा सीवी टाइप किया, मेरे प्रमाणपत्रो की फोटोकॉपी भी निकाली।  

अगले दिन, जब मैं आवेदन जमा करने गया, तो मुझे पता चला कि विभाग के प्रमुख ने मेरे अन्य सहपाठियों को भी इसी तरह का फोन किया था और उन्होंने भी उसी पद के लिए अपना आवेदन जमा किया था। फिर से, मैं अपने चुने जाने की संभावनाओं को लेकर नाखुश और चिंतित था। लेकिन मेरे हाथ में अपना आवेदन जमा करने के अलावा कुछ नहीं था। 

कुछ हफ्तों के बाद, मुझे पता चला कि समिति के सदस्यों द्वारा मेरी उम्मीदवारी पर विचार किया गया था और मुझे गर्मी की छुट्टी के बाद विश्वविद्यालय के खुलने के पहले दिन ही आने के लिए कहा गया था। बाद में मुझे पता चला कि संविदा पर व्याख्याता के पद के लिए उम्मीदवारों की उम्मीदवारी तय करने के लिए आयोजित समिति की बैठक में, समिति के सदस्यों का विचार था कि चूंकि यह केवल छह महीने के लिए संविदात्मक रोजगार था, इसलिए केवल उन आवेदनों पर विचार किया जाएगा जो कहीं काम नहीं कर रहे हैं। ऐसा इसलिए था क्योंकि वह काम बहुत अनिश्चित था। छह महीने बाद उस रोजगार का क्या अंजाम होगा, यह किसी को नहीं पता था। इसलिए यदि कहीं और काम करने वाले किसी व्यक्ति को वह प्रस्ताव दिया जाता था और यदि छह महीने के बाद अनुबंध का नवीनीकरण नहीं किया जा सकता था, तो यह उम्मीदवार के साथ बहुत अनुचित होता और उस स्थिति में, वह अपनी पहले की नियमित नौकरी खो देता। चूँकि मेरे अन्य सभी मित्र कुछ विद्यालयों में नियमित पदों पर कार्यरत थे, इसलिए उनकी उम्मीदवारी पर विचार नहीं किया गया। मैं कहीं भी काम नहीं कर रहा था, और इसलिए, मेरी उम्मीदवारी पर विचार किया गया, और मुझे वह संविदात्मक प्रस्ताव दिया गया।

वह मेरा पहला काम था। वहां काम करते हुए मुझे कुछ अनुभव प्राप्त हुआ और उस अनुभव के आधार पर मैंने सेंटर फॉर मैनेजमेंट स्टडीज, डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन किया और मेरा चयन हो गया। वहां से मैं असम विश्वविद्यालय, सिलचर और फिर भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद गया।

मैं वर्तमान में एक पूर्णकालिक प्रवक्ता हूँ तथा मेरे नाम पर अनेकों उपलब्धियां हैं जिनके होने का कारण अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग बताया गया है, लेकिन मुझे लगता है कि अगर मैं जी एस लोहिया गर्ल्स कॉलेज, तिनसुकिया में चुना जाता, तो मैं इस मुकाम तक नहीं पहुंचता। अगर वहाँ यह पाउलो कोएल्हो की कहावत की पुष्टि करता है "हम प्रकाश के योद्धाओं को कठिन समय में धैर्य रखने के लिए तैयार रहना चाहिए और यह जानने के लिए कि ब्रह्मांड हमारे पक्ष में साजिश कर रहा है, भले ही हम यह न समझें कि कैसे"